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मरुदेवी माता को हाथी की सवारी किये हुए तथा करोड़ों का अलंकार पहने हुए प्रांतरिक मोह के उपशमन के साथ ही केवलज्ञान उत्पन्न हो गया तथा छ: खंड के स्वामी भरत चक्रवर्ती को गृहस्थावास में ही केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । इससे स्पष्ट है कि केवल बाह्य पदार्थों के योग से ही परिग्रह नहीं कहा जा सकता |
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बाहरी पदार्थों के योग को ही यदि परिग्रह कहा जाय तो एक भिखारी जिसके पास पहनने को वस्त्र, खाने को अन्न अथवा पूटी कौड़ी भी न हो तो उसे परम अपरिग्रही तथा महात्यागी समझना चाहिये । पर ऐसा तो कोई नहीं मानता, कारण यह है कि उन भिखारियों के पाप बाह्य पदार्थ नहीं होते हुए भी उनमें आंतरिक परिग्रह यानी तृष्णा तो भरी हुई है, इसीलिये उनका कल्याण नहीं हो सकता ।
इससे सिद्ध होता है, कि इच्छा तृष्णा, आदि पाप के पुद्गल प्रत्येक के स्वयं के अपने पास रहते हैं । उसे आप ले-दे नहीं सकते। जो निष्परिग्रही हैं वे जिस तरह दूसरों के करने से परिग्रही नहीं बनते उसी तरह वीतराग की भक्ति के निमित्त द्रव्य चढ़ाने से वीतराग परिग्रही नहीं बन जाते ।
प्रश्न ५० - दान, शील, तप और भावना, ये चार प्रकार के धर्म हैं । उनमें मूर्तिपूजा किस प्रकार के धर्म में आती है ?
उत्तर - मूर्तिपूजा में चारों प्रकार के धर्म मौजूद हैं और वे नीचे माफिक हैं
प्रथम सुपात्र दान धर्म - इसके दो भेद : (१) अकर्मी ( कर्म रहित ) सुपात्र दान । ( २ ) सकर्मी सुपात्रदान । पात्र भी दो
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