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________________ १८३ साथ ही उस धन को सांसारिक कार्यों में खर्च करने से उलटी विशेष पापवृद्धि होती है । ऐसी दशा में इस धन में से मेरे भाव के अनुसार जितना घन मैं आपकी भक्ति में खर्च करूँगा उस मात्रा में पापवृद्धि होती रुक जायेगी। इतना ही नहीं परन्तु इससे पुण्यानुबंधि पुण्य का सर्जन होगा। और अंत में यह धन मेरा तो है ही नहीं। मेरा तथा उसका स्वभाव भिन्न है। मैं चेतन हूँ, वह जड़ है। अतः उस पर से जितनी मूर्छा मोह उतरे, उतनी मुझे उतारनी चाहिये । इस प्रकार अपने परिग्रह और अपनी मोह ममता घटाने के लिये प्रभुभक्ति आदि धार्मिक कार्यों में द्रव्य खर्च किया जाता है । जितनी मात्रा में अच्छे कार्य में द्रव्य खर्च करने की इच्छा होती है उतनी मात्रा में तृष्णा कम होती है और जितनी मात्रा में धन संचय की इच्छा होती है उतनी मात्रा में परिग्रह और लोभवृत्ति की वृद्धि होती है। मुनिजन भी संयम निर्वाह के लिये वस्त्र, पात्र, पुस्तक आदि पदार्थ ग्रहण करते हैं। काया पुद्गल है, उसे भी वे धारण करते हैं। खान पान भी करते हैं। उनका शिष्य समुदाय भी होता है । ये सभी प्रकार से पुद्गल ही हैं। उन सबको यदि परिग्रह गिनोगे तो साधुओं का पाँचवा व्रत सर्वथा नष्ट हुमा समझना पड़ेगा और किसी भी साधु का मोक्ष नहीं हो सकेगा। परन्तु आज तक असंख्य मुनि मोक्ष में पहुँच गये और आगे भी जायेंगे । अतः जैसे साधु पुरुषों के पास पूर्वोक्त वस्तुएँ होते हुए भी, वे उसमें लिप्त तथा ममता वाले नहीं होने से अपरिग्रही ही कहलायेंगे, वैसे श्री वीतराग भी अपरिग्रही ही हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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