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१८२ मुझ में राग-द्वेष की भावना जागृत होगी। जितना आहार मैं प्रापको अर्पित करूँगा उतने आहार सम्बन्धी रागद्वेष की भावना कम होगी, भक्ति का लाभ मिलेगा तथा परम्परा से मुक्तिफल का स्वाद चखने का सौभाग्य भी प्राप्त होगा।
प्रश्न ४६-भगवान् अपरिग्रही हैं। उनके सामने पैसे, टके आदि रखकर उन्हें परिग्रही बनाने की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर-यह कुतर्क भी ऊपर जैसा ही है फिर भी इस पर पुनः विचार करें। पहले तो परिग्रह किसे कहा जाता है ? खान, पान, वस्त्र, अलंकार, धन धान्य आदि पाठ स्पर्श वाले पुद्गल हैं, नजरों से जिन्हें देखा जा सकता है, एक दूसरे को दिये जा सकते हैं पर अठारह पापस्थानक के पुद्गल चार स्पर्श वाले हैं जिनको केवली भगवान् के सिवाय अन्य कोई देख नहीं सकता और इससे पाप के पुद्गल एक दूसरे के देने से दिये नहीं जा सकते।
परिग्रह पाँचवा पापस्थानक है । मोह, ममत्व, तृष्णा आदि उसके प्रकार हैं। परमात्मा का मोह-ममता रूप परिग्रह तो पूर्ण रूप से जल कर खाक बन गया है और दूसरे के देने से अब दिया नहीं जा सकता तो फिर अपरिग्रही और निर्मोही भगवान् दूसरे के करने से परिग्रही और मोह वाले कैसे बन सकते हैं ?
और श्री जिनप्रतिमा के सामने द्रव्य चढ़ाते समय पूजक की भावना कैसी होती है, यह भी समझने योग्य है ।
द्रव्य चढ़ाते समय पूजक यह सोचता है कि "हे प्रभु ! मैं धन जो अजित करता हूँ उसमें अनेक प्रकार के कर्मबंध होते हैं।
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