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उत्तर - प्रधाकर्मी आहार न लेने सम्बन्धी विचार तो दीक्षा लेने के बाद का है और नैवेद्यादि द्रव्यपूजा तो उसके पूर्व की अवस्था का विषय है, यह खुलासा ऊपर हो चुका है । जैसे साधु होने वाले व्यक्ति को घर-घर भोजन कराया जाता है पर साधु होने के बाद नहीं अर्थात् नैवेद्यादि पूजा द्रव्य निक्षेप के प्रश्रय से है, भाव निक्षेप के आश्रय से नहीं । जैसे इन्द्रदेव तथा अन्य देव भगवान् के जन्म महोत्सव के समय कई उत्तम द्रव्यों से प्रभु की अर्चना करते हैं तथा बाद में भी देवतागण बारम्बार ऐसी भक्ति करते हैं वैसे ही प्रभु को छद्मावस्था के कारण उपर्युक्त भक्ति का विधान है । अतः उसमें दोषारोपण करना व्यर्थ है ।
प्रश्न ४८ - छोटी सी मूर्ति के आगे नैवेद्य के ढेर लगा दिए जाते हैं । क्या यह अनुचित नहीं है ? क्या मूर्ति को खाने की श्रावश्यकता रहती है ?
NO
उत्तर - यह प्रश्न सर्वथा व्यर्थ है । नैवेद्य मूर्ति के खाने के लिए नहीं रक्खा जाता किन्तु पूजा करने वाला अपनी भक्ति के लिए ऐसा करता है । पूज्य को इससे कोई प्रयोजन नहीं
रहता ।
मूर्ति खाती नहीं, इसीलिये उसके सामने यह विनंति करने की है कि, "हे प्रभु ! आप निर्वेदी तथा सदा अनाहारी हो । आपके सामने मैं यह आहार इस भाव से रखता हूँ कि मैं इस आहार तथा नैवेद्य का बिल्कुल त्याग कर सदा के लिये आपके जैसा अनाहारी पद ( मोक्ष ) प्राप्त करूँ तथा हे देवाधिदेव ! यह आहार अनेक पापारंभ करके तैयार किया है और यह आहार यदि मैं खाऊँगा तो फिर इसके प्रास्वादन से
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