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________________ १८० जब साधु को चार कषाय, छः लेश्या और पाठ कर्म खपाने के शेष है तो ऐसी दशा में सामान्य साधु और भगवान की पूजा का कल्प एक समान कैसे हो सकता है ? भगवान् स्वर्ण-सिंहासन पर बैठते हैं, पर सामान्य साधु यदि सोने का स्पर्श भी करता है, तब भी दोष लगता है क्योंकि साधु के लिए मोह पैदा करने का वह कारण है। . भगवान् को पच्चीस क्रियाओं में से एक ईर्यापथिकी (मार्ग पर चलने की) मात्र क्रिया लगती है और उससे भी प्रथम समय में कर्म बंध होता है, द्वितीय समय में वह कर्म भोगते हैं तथा तृतीय समय में नाश करते हैं। अतः कहाँ तो केसरी सिंह और कहाँ हिरन ? कहाँ चक्रवर्ती राजा और कहाँ भिक्षक ? इस प्रकार श्री वीतराग देव और वेषधारी साधु में महान् अन्तर है और इसीलिए दोनों की पूजा का व्यवहार भी एक समान कैसे हो सकता है ? __मूर्ति भगवान् के गुणों का स्मरण कराने का एक प्रालंबन है, इसलिए कच्चे पानी से स्नान का दोष उसे किस प्रकार लग सकता है ? साक्षात् प्रभु की पूजा का तथा उनकी मूर्ति की पूजा का कल्प तो अलग-अलग ही रहने का है। जैसे साक्षात् प्रभु को रथ में बिठाकर उनकी भक्ति नहीं की जाती, जबकि प्रभु की मूर्ति को भक्ति के लिए सभी रथ में बिठाते हैं। भाव अरिहंत एवं स्थापना अरिहंत की भक्ति करने की प्रणाली में कई प्रकार से अन्तर पड़ता है। प्रश्न ४७-भगवान् तो आधाकर्मी या अव्याहत आहार काम में नहीं लेते तो फिर उनकी मूर्ति के सामने बना हुआ, बिकाऊ लामा हुअा अथवा सामने लाया हुअा आहार कैसे रक्खा जाता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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