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१८६ पड़े तो लब्धिवंत साधु, तलवार हाथ में लेकर आकाश मार्ग "पर जावे
(२) श्री ठाणांगसूत्र तथा श्री बृहत्कल्पसूत्र में कहा है कि कीचड़ में तथा जल में फंसी हुई साध्वी को बाहर निकालने पर भी साधू श्री जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं करता तथा साधुसाध्वी के पैर में काँटा अथवा कील चुभ जाय या अाँख में धूल गिर जाय और कोई निकालने वाला नहीं हो तो वे आपस में भी निकालें। __ (३) श्री सूयगडांग सूत्र में कहा है कि कारणवश आधाकर्मी आहार लेने में साधु को दोष नहीं लगता!
(४) श्री प्राचारांग सूत्र में साधु को नदी में उतरने की तथा खड्ड में गिर जाय तो पेड़ की डाल अथवा घास प्रादि को पकड़कर बाहर निकलने की आज्ञा है
(५) श्री उववाई सूत्र में कहा है कि शिष्य की परीक्षा लेने के लिये गुरु उस पर झूठे दोष लगाये।
अब यदि प्रत्यक्ष जीवों को नहीं मारना, इसी को अहिंसा कहोगे तो पंचमहाव्रतवारी साधु को तो तीनों प्रकार की हिंसा का पच्चक्खाण है फिर भी उसे उपरोक्त कार्य करने को कहा गया है, तो इसका क्या ? इसमें तुम जैसी हिंसा कहते हो वैसी हिंसा तो स्पष्ट रूप से रही हुई ही है। अतः साधु जो उपरोक्त प्राज्ञा विहित कार्य करे तो क्या उससे, उसके व्रतों का खंडन होगा या नहीं ? फिर तुम कहते हो कि खाते, पीते, उठते, बैठते भी ऐसी हिंसा तो होती ही है, तो उसके अनुसार वे हिंसक हैं या अहिंसक ? भगवान ने तो इस प्रकार जीवों की हिंसा होने पर भी यतनावान साधुओं को आराधक कहा है ।
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