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प्रातिहार्य सहित होते हैं तथा रत्नजड़ित सिंहासन पर बैठते हैं । सोने का लगातार स्पर्श पाकर भी उनका वीतराग भाव चला
नहीं जाता और यदि चला जाता होता तो गणधर महाराज तथा इंद्रादिदेव किसलिये वीतराग कहकर उनकी स्तुति करते ? वीतरागपन का भाव यह कोई बाह्य पदार्थ नहीं, परन्तु प्रांतरिक वस्तु है |
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तीसरी रूपातीत अवस्था - यह रूप बिना सिद्धपरणे की अवस्था हैं । प्रभु को पर्यंकासन पर काऊसग्ग ध्यान में शांत मुद्रा में, बैठे हुए देखकर रूपातीत अवस्था की भावना करने को है । ऐसी दशा में प्रभु को देखकर इस अवस्था का चिंतन करने में आत्मा को अपूर्व शांति प्राप्त होती है ।
जो प्रातिहार्यादि पूजा को नहीं मानते, उन्हें तो केवल निर्वाण अवस्था को ही मानना चाहिये, पर ऐसा तो तभी हो सकता है, कि जब भगवान् की एकांत निर्वारण अवस्था ही पूजनीय हो तथा अन्य अवस्थाएँ पूजनीय हों । प्रभु की समस्त अवस्थाएँ पूजनीय हैं, इसलिये उनको पूजने की रीति भी उपरोक्त तीन प्रकार से शास्त्रकारों ने बतलाई है ।
यहां एक बात यह भी समझने की है कि जिन साधुत्रों को लोग वंदना करते हैं, पूजा करते हैं वे त्यागी हैं अथवा भोगी ? यदि त्यागी हैं तो वे आहार पानी आदि का उपयोग क्यों करते हैं ? वंदन - नमस्कार क्यों स्वीकार करते हैं ? वस्त्र, पात्र आदि ग्रहण करने से क्या वे भोगी, अभिलाषी या तृष्णावान सिद्ध नहीं होते हैं ? यदि नहीं तो जिस प्रकार साधु महात्मा राग-रहित होकर पूर्वोक्त वस्तु को उपयोग में लेकर, संयम साधना करते हैं; फिर भी भोगी नहीं बन जाते, उसमें लिप्त
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