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________________ १७७ का आरोपण कर नमस्कार-स्तुति आदि की जाती है । श्री वीतरागदेव गृहस्थावस्था में वस्त्र तथा आभूषण के भोगी थे, परन्तु उस अवस्था में भी मन से तो त्यागी ही थे। परन्तु तीर्थंकर पदवी का निकाचित पुण्य उपार्जन करके आये होने से प्रातिहार्यादि बाह्य ऋद्धि भी आकर प्राप्त होती है और निलिप्त भाव से इसका भी भोग करना पड़ता है। परन्तु उस समय भी वे राग-द्वेष रहित शुद्ध भाव में होने से उनको नये कर्म बंधन नहीं होते हैं। राग-द्वष की चौकड़ी मिलती है तभी कर्म बंधन होते हैं । .. वीतराग प्रभु का खान-पान, बैठना-उठना प्रादि सब मोह-ममत्व रहित होने से बंध के नहीं, परन्तु निर्जरा के हेतु हैं जबकि अज्ञानी लोग उन सभी कार्यों में मोहित हो जाने से कर्म बंध करते हैं। . प्रभु तो वीतराग हैं, निरागी हैं, तो फिर उनकी वस्त्रलंकार द्वारा पूजा करने से उनके निरागीपन में लेशमात्र भी न्यूनता कैसे आ सकती है ? भगवान् की तीन अवस्था में प्रथम पिण्डस्थ अवस्था के तीन भेद हैं : (१) जन्मावस्था-नहलाना, पक्षालन करना, अंग पोंछना आदि करना, यह-जन्मावस्था की भावना है। (२) राज्यावस्था-केसर, चन्दन, फूलमाला, आभूषण, अंगरचना आदि करना, यह-राज्यावस्था की भावना है। - (३) श्रमरणावस्था-भगवान् का केश रहित मस्तक, कायोत्सर्गासन आदि का चिंतन करना, यह श्रमणावस्था की भावना है। - दूसरी पदस्थ अवस्था-पद कहने से श्री तीर्थकर पद । इसमें केवलज्ञान से लगाकर निर्वाण पर्यंत की केवली अवस्था का चिंतन करने का है। इस अवस्था में प्रभु आठ १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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