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मोह के परिणाम के आधीन है। ऐसे मोह को तो भगवान् ने पहले से ही देश निकाला दे दिया है । अलिप्त भगवान् को जैसे पूजा से राग नहीं, वैसे निंदा से द्वेष भी नहीं । जो जिस तरह करता है उसे उसी प्रकार का फल अपनी श्रात्मा के लिये प्राप्त करता है । जैसे सूर्य की ओर कोई थूके अथवा स्वर्ण मोहर फेंके तो वह फेंकने वाले की तरफ लौट कर आती है । सूर्य को उससे कुछ लगता नहीं । इसी प्रकार परमात्मा की पूजा अथवा निंदा से भी निंदक को ही, लाभ-हानि होती है ।
श्री तीर्थंकर देव जन्म से लेकर निर्वाण तक पूजनीय और वंदनीय हैं क्योंकि निंदनीय वस्तु के चारों निक्षेप जैसे निंदनीय होते हैं, वैसे ही पूजनीय वस्तु के चारों निक्षेप पूजनीय होते हैं ।
द्रव्य निक्षेप से पूर्व जन्मावस्था का श्रारोपण कर जैसे इंद्रादि देवों ने स्नान करवाया, वैसे प्रभु को जल से स्नान कराके ऐसी भावना धारण करें कि - "हे प्रभु ! जैसे जल प्रक्षालन से शरीर का मैल दूर होता है और बाहरी ताप का नाश होता है वैसे ही भाव रूप पवित्र जल से मेरी आत्मा के साथ रहने वाले कर्ममैल का नाश हो ।" और "विषय कषाय के ताप का उपशम हो” तथा यौवनावस्था या राज्यावस्था का आरोपण कर वस्त्र, आभूषण आदि पहनाने में आते हैं उस समय सोचना कि 'अहो प्रभु ! आपको धन्य है कि इस प्रकार वस्त्राभूषरण, राजपाट को छोड़कर, संयम ग्रहरण कर, आपने अनेक भव्य जीवों का उद्धार किया । मैं भी अपनी अल्पबुद्धि और परिग्रह को छोड़कर ऐसा कब बनूँगा !
इस प्रकार केसर, चन्दन, नैवेद्यादि चढ़ाकर, सभी स्थानों पर अलंग २ भावना भावित करने में प्राती है तथा केवली अवस्था
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