SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७५ . (६) रत्नमय तेज के अंबाररूप भामंडल भगवान् के पीछे रहता है। (७) दिव्य ध्वनिरूप प्रातिहार्य द्वारा मनोहर वीणा का स्वर होता है। (८) एक ऊपर दूसरा, ऐसे तीन २ छत्र प्रभु के सिर पर रहते है। और लाखों, करोड़ों देव. जय जयकार की ध्वनि से स्तुति करते हुए साथ रहते हैं। देव समवसरण बनाते हैं, जिसमें चाँदी का गढ़ और सोने के कंगूरे, सोने का गढ़ और रत्न के कंगूरे, रत्न का गढ़ और मणिमय कंगूरे होते हैं और बोस हजार सीढ़ियाँ एक तरफ़ होती हैं। भगवान् रत्नमय सिंहासन पर विराजमान होकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके देशना देते हैं। शेष तीन दिशाओं में देवता भगवान् की तीन मूर्तियाँ स्थापित करते हैं। इन दिशात्रों से पाने वाले लोग तथा तिर्यंच उनको साक्षात् प्रभु जानकर नमस्कार करते हैं। 'प्रभु एक अपने मुख से तथा तीन दिशाओं में मूर्ति के मुख से, इस प्रकार चार मुखों से अतिशय द्वारा देशना देते हैं। चलते समय भगवान् स्वर्ण कमल पर पैर रखकर ग्रामानुग्राम विहार करते हैं, सुगंधित पवन, सुगंधित जल का छिटकाव और पुण्यवान् पुरुषों के लायक अनेक दिव्य पदार्थ प्रकट होते हैं। इतने पदार्थों का सेवन करने वाले तीर्थंकरों का त्यागीपन गया नहीं, कर्म लगे नहीं, भोगी बने नहीं, फिर मुक्त परमेश्वर की मूर्ति के सम्मुख पूजक की द्रव्यपूजा से उन पर भोगी बनने का आरोप अथवा आक्षेप करना मात्र अज्ञानता के सिवाय और क्या है ? भोगीपन बाद्य पदार्थों से नहीं होता। वह तो आंतरिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy