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१७४ अरिहंति वंदणनमंसणाइ, अरिहंति पूत्रसक्कार । सिद्धिगमण च अरहा, अरहंता तेण वुच्चंति ॥
अर्थ-जो वंदन नमस्कार आदि के योग्य है, जो (इंद्र आदि देवों के किये हुए पाठ प्रतिहार्य रूप) पूजा एवं सत्कार के योग्य है और जो सिद्धि गति की प्राप्ति के योग्य है, उसे परहंत कहा जाता है । इस प्रकार अहंत नाम ही द्रव्य पूजा का सूचक है । - जिसके राग द्वेष जड़मूल से उखड़ गये हैं, वे दूसरे के द्वारा की हुई पूजा से भोगी अथवा रागी कैसे बन सकते हैं ? राग की उत्पत्ति का कारण मोह-ममता है और वह सर्वथा नष्ट हो चुकी है, तो वे इसमें किस प्रकार लिप्त हो सकते हैं ? यदि पूजा से भोगी बन जायेंगे तो क्या निंदा से निंदनीय बन जायेंगे ? नहीं। पूजा अथवानिंदा से उनकी महिमा बढ़ती घटती नहीं। पूजा तथा निंदा से उनका कोई सम्बन्ध नहीं। पूजक अगर निंदक पुरुष को ही वे क्रियाएँ शुभाशुभ फल देने वाली हैं भगवान् को केवल-ज्ञान होने के पश्चात् पाठ प्रतिहार्य होने का श्री समवायांग सूत्र में विगतवार वर्णन है
(१) अशोक वृक्ष भगवान् को छाया करता है।
(२) देवता जल-थल में उत्पन्न पंचरंगी फूलों को घुटनों तक बरसाते हैं।
(३) आकाश में देव दुदुभि बजती है। . (४) दोनों ओर चँवर ढुलते हैं।
(५) प्रभु के बैठने के लिये रत्नजड़ित स्वर्ण सिंहासन हमेशा साथ रहता है।
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