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( २५-२६ ) .. श्री अनुयोगद्वार तथा श्री ठाणांग सूत्र में चारों निक्षेप और चार प्रकार के तथा दस प्रकार के सत्यों का वर्णन किया हुआ है जिसमें स्थापना निक्षेप तथा स्थापना सत्य भी आता है। उससे भी स्थापना अर्थात् मूर्ति को मानने की बात सिद्ध हो जाती है।
• दुराग्रह रहित बुद्धिमान् लोगों के लिए केवल संकेत ही काफी है। सूत्र के सैकड़ों पाठों में से केवल इतने ही पाठ देना उचित समझते हैं। और भी कई प्रमाण प्रसंग आने पर बताये जायेंगे ।। उस पर से विद्वान् पाठकगण वास्तविक निर्णय कर सकेंगे। अगर जैनों में परंपरा से मूर्तिपूजा न होती तो उसका उल्लेख मूल सूत्रों में पाया कहाँ से ? जगत् में प्रत्येक नामवाली वस्तु अपने गुण विशेष से जुड़ी हुई है वैसे ही मूर्ति' नामधारी वस्तु भी किसी प्रकार निरर्थक नहीं है । 'मूर्ति' शब्द भी उसमें रही हुई वस्तु का वास्तविक बोध कराती है। वह स्थापना सिवाय अन्य किसी भी विषय के कारण से सिद्ध नहीं होती।
प्रश्न ४५-प्रतिमा को जिनराज के तुल्य मानना और उसे प्राभूषण आदि चढ़ाना, पुष्प, धूप, स्नान, विलेपनादि करना, क्या यह उचित है ? क्या यह क्रिया त्यागी को भोगी बनाने जैसी नहीं है ?
उत्तर-त्यागी और भोगी का अन्तर जो जानता है, वह ऐसा प्रश्न नहीं कर सकता। अहंत शब्द का व्याकरण की दृष्टि से अर्थ निम्नानुसार है।
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