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१७१ "श्री अरिहंतदेव की प्रतिमा को पूजने से समकित की प्राप्ति होती है तथा बोधिबीज की रक्षा होती है। इस कारण "कयबलीकम्मा" पाठ से श्रावकों को श्री जिनप्रतिमा की पूजा करनी, ऐसा इसका अर्थ हुआ।
कितने ही "न्हाया कय बलीकम्मा" का "स्नान करके फिर पानी के कुल्ले किये" ऐसे शास्त्र के बिल्कुल विपरीत अर्थ करते हैं, जो असत्य है।
भावनिक्षेप से साक्षात् तीर्थंकर को वंदन-पूजन करने का जो फल है तथा सम्यक्त्व और ज्ञान सहित चारित्र पालने का जो फल सूत्र में बताया है, वही फल श्री जिनप्रतिमा के वंदन पूजन का कहा है । यावत् मोक्ष प्राप्ति तक का बतलाया है।
(२१) श्री ज्ञातासूत्र में तीर्थंकर गोत्र-बंध के लिए बीस स्थानक कहे हैं। उनमें "सिद्धपद की आराधना करना" "ऐसा फरमाया है। उन प्ररूपी सिद्ध भगवान का ध्यान-पाराधन उनकी मूर्ति बिना हो ही नहीं सकता । श्री व्यवहार सूत्र में कहा है कि
"सिद्धवेयावच्चेणं महानिज्जरा महापज्जवसाणं चेवति ।"
सिद्ध भगवान् की वैयावच्च करने से महानिर्जरा होती है अर्थात् मोक्ष मिलता है। ___ तर्क-सिद्ध भगवान की वैयावच्च तो नाम-स्मरण से ही हो जाती है तो फिर मूर्ति का क्या प्रयोजन ?
उत्तर-नामस्मरण को तो गुरणगान, कीर्तन, भजन, स्वाध्याय आदि कहते हैं, वैयावच्च नहीं। यदि वैयावच्च का
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