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श्री आवश्यक सूत्र में कहा है कि :.."अंतेउरे चेइयहरं कारियं पभावती पहाता, तिसंज्झ अच्चेइ, अन्नया देवी गच्चेइ, राया वीणं वायेई"
भावार्थ-प्रभावती रानी ने अन्तःपुर में चैत्यधर (जिनभुवन) बनवाया। उस मंदिर में रानी स्नान करके प्रातःकाल, मध्याह्नकाल तथा सायंकाल त्रिकाल पूजन करती है । किसी समय रानी नृत्य करती है तथा राजा स्वयं वीणा वादन करता है।
। श्री "शालीभद्र चरित्र" जिसे प्रायः तमाम जैन मानते हैं, में कहा है कि :
"शालीभद्र के घर में उनके पिता ने जिनमंदिर बनवाया था तथा रत्नों की प्रतिमाएँ बनवाई थी। वह मंदिर अनेक द्वारों सहित, देवविमान जैसा बनाया गया था।"
(१८-१९-२०) श्री भगवती, श्री रायपसेगी और श्री ज्ञातासूत्रादि अनेक सूत्रों में श्रावकों के वर्णन में "न्हाया कयबलिकम्मा।" अर्थात् "स्नान करके देवपूजा करना" ऐसे उल्लेख हैं। श्री भगवतीजी में तुगीया नगरी के श्रावक के अधिकार में कहा गया है कि"श्रावक यक्ष, नाग आदि अन्य देवों को नहीं पूजे" तथा श्री सूयगडांग सूत्र में भी कहा है कि 'नागभूतयक्षादि' तेरह प्रकार के अन्य देवों की प्रतिमा को पूजने से मिथ्यात्वपन प्राप्त होता है तथा बोधिबीज का नाश होता है। इससे सिद्ध होता है कि
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