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( १३ )
श्री महानिशीथ सूत्र के चौथे अध्ययन में श्री जिनमंदिर बनवाने वाले को बारहवें देवलोक अर्थात् दान, शील, तप तथा भावना की आराधना से जिस फल की प्राप्ति होती है वह फल प्राप्त होता है, ऐसा फरमाया है ।
काउंपि जिगाय रोहि, मंडियं सव्वमेइणीवट्ट | दारणाइच उक्केण सड्ढो, गच्छेज्ज प्रच्चुयं जाव न परं ॥१॥ भावार्थ- पृथ्वीतल को जिनमंदिरों से सुसज्जित करके तथा दानादि चारों (दान, शील, तप और भाव) करके श्रावक अच्युत - बारहवें देवलोक तक जाता है उससे ऊपर नहीं ।
( १४ )
पुनः उसी सूत्र में अष्ट प्रकार की पूजा आदि का विस्तार से वर्णन है । उसे जानने के इच्छुक लोगों को उसे देखना चाहिये ।
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( १५ )
श्री प्रावश्यक सूत्र में भरत चक्रवर्ती के श्री जिनप्रसाद बनवाने का उल्लेख है ।
"शुभसयभाउगारणं, चउवीसं चैव जिरगहरे कासी । सध्वजिगाणं पडिमा वण्णपमाणेहिं निग्रहं ॥१॥ | "
अर्थ - एक सौ भाई के सौ स्थंभ तथा चौबीस तीर्थंकर महाराज का जिनमंदिर जिसमें मारे तीर्थंकरों की उनके वर्ण तथा शरीर के प्रमारणवाली प्रतिमाएँ श्री अष्टापद पर्वत पर भरत राजा ने स्थापित की ।
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