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________________ देहाकार को लक्ष्य कर होता है। यदि उपास्य का नाम केवल उसके गुणों को लक्ष्य कर होता तो प्रत्येक उपास्य को भिन्न भिन्न नाम देने की आवश्मकता ही नहीं रहती। विभिन्न उपास्यों के समान गुण होते हुए भी उनके देहाकार अादि समान नहीं होते इसीलिए ही प्रत्येक का नाम अलग अलग दिया हुअा रहता है। देहाकार के नाम की भक्ति का फल मानते हुए भी साक्षात् देहाकार की भक्ति को निष्फल मानना-बुद्धि की जड़ता के सिवाय और कुछ नहीं है। नाम अथवा नाम की स्थापना--यह शब्दात्मक जड पद्गलों से बनी हुई है। ठीक उसी प्रकार देहाकार अथवा उसकी स्थापना भी जड़ पुद्गलों से बनी है । शब्दात्मक और स्वल्प जड़ पुद्गलों की भक्ति को फलवती मानना एवम् इन्हीं शब्दों से उत्पन्न असाधारण निमित्त-स्वरूप प्राकारात्मक विशालकाय बने हुए जड़ पुद्गलों की भक्ति को निष्फल अर्थात् पापवर्धक मानना यह तो क्षुद्र बुद्धि का ही परिणाम कहा जा सकता है। नाम यदि कल्याणकारी है तो यह नाम जिस स्वरूप का है वह स्वरूप अधिक कल्याणकारी है-इसमें किसी भी बुद्धिशाली व्यक्ति के दो मत हो ही नहीं सकते। सावद्य-निरवद्य का विचार: 'नाम की भक्ति निरवद्य है. तथा आकार की भक्ति सावेद्य है'-ऐसा तर्क करने वाले सावद्य-निरवद्य के भेद को नहीं समझ सके हैं । भक्ति अथवा गुण प्राप्ति के किसी भी कार्य को सावध कहना-यह श्री जैन शासन को मान्य नहीं है। इतना ही नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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