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"नंदीसरदीवे समोसरणं करेइ, करेइत्ता तहिं चेहयाई वंदइ, वंदइत्ता इहमागच्छइ इहमागच्छइत्ता, इह चेइमाइं वंवइ ॥"
भावार्थ :-(जंघाचरण व विद्याचरण मुनि) श्री नंदीश्वर द्वीप में समवसरण करते हैं। उसके बाद वहाँ के शाश्वत चैत्यों (जिनमंदिरों) को वंदना करते हैं । वंदना करके यहाँ भरतक्षेत्र में आते हैं और पाकर यहाँ के चैत्यों (अशाश्वत् प्रतिमाओं) की वंदना करते हैं।
(७) श्री भगवतीसूत्र में अमरेन्द्र के अधिकार में तीन शरण कहे हैं। वे नीचे माफिक हैं
'अरिहंते वा अरिहंतचेझ्यारिण वा माविप्रप्परको प्ररणमारस्स
भावार्थ-(१) श्री अरिहंत देव (२) श्री अरिहंत देव के चैत्य (प्रतिमा) और (३) भावित है आत्मा जिनको ऐसे साधु, इन तीनों की शरण जानना।
(८) श्री आचारांग के प्रथम उपांग श्री उववाई सूत्रानुसार अंबड़ श्रावक तथा उसके सात सौ शिष्यों ने अन्य देव गुरु की वंदना का निषेध कर श्री जिनप्रतिमा तथा शुद्ध गुरु को नमस्कार करने का नियम लिया है । वह सूत्र-पाठ नीचे माफिक है :
"अंबडस्स परिवायगस्स नो कप्पइ अन्नइथिए वा मन्त्रउत्थिय देवयाई वा अन्नउस्थिअपरिग्गहियाइं अरिहंतचेइयाई वा वंदित्तएवान नमंसित्तए वा, नन्नत्थ अरिहंते वा अरिहंत चेइआइंवा"
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