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सकेंगे ? इससे तुम्हारी दृष्टि में मोक्ष में जाने के बाद वे अपूज्य होंगे और उतने ही पूज्य रहेंगे जितने कि मोक्ष के इरादे अर्थात् अशरीरी बनने के इरादे से उपदेश न दें और केवल इस चतुर्गति रूप संसार में सदा काल भटकने का बना रहे, इस इरादे से उपदेश दें। क्योंकि इसके बिना उनके द्वारा सदा काल बोध नहीं दिया जा सकता और यदि वे बोध न दें तो तुम्हारी दृष्टि से पूजनीय नहीं गिने जायेंगे | परन्तु बोध देने के लिये आहार लेना पड़े, निहारादि करना पड़े, वे भी तुम्हारी दृष्टि में पूजनीय, और मोक्ष में जाने के बाद अनाहारी बनने वाले पूज्य नहीं !
'उपदेश करें वे ही उत्तम' ऐसा मानने पर, अन्त में प्राहार करे वह उत्तम और ग्राहार नहीं करे वह उत्तम नहीं' - ऐसा मानने का प्रसंग भी आ पड़ेगा । अतः सदुपदेशादि करें वे तो उत्तम हैं ही परंतु जो ऐसे शुभ कार्य करके निवृत्त बन चुके हैं वे तो उनसे भी उत्तम हैं, ऐसा मानना ही चाहिये ।
'मूर्ति उपदेश नहीं देती अतः पूजनीय नहीं और गुरु उपदेश देते हैं अतः पूजनीय हैं' ऐसी प्रज्ञानपूर्ण बातें करने वाले तत्त्व को नहीं समझते । उपदेशादि देकर जो धन्य बन चुके हैं ऐसे सिद्ध भगवंतों की मूर्ति तो उपदेश देने वाले गुरुत्रों से भी अधिक पूजनीय हैं क्योंकि गुरुजन उनका अवलंबन लेकर ही गुरु बन सके हैं । जो सिद्ध भगवंतों की पूजा करने से इन्कार करते हैं उनके समान कृतघ्न इस जगत् में दूसरे कोई भी नहीं !
प्रश्न ४२ - बहुत लोग कहते हैं कि केवल मूल सूत्र को मानना चाहिये, टीका आदि पीछे से बनी हैं अतः उनको नहीं मानना चाहिये । तो इसमें तथ्य क्या है ?
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