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प्रत्येक देश के बुद्धिमान लोगों को इन आकारों का प्रांश्रय लेना ही पड़ता है, फिर भी केवल देवमूर्ति सम्बन्धी बाधा उठाने में आती है, यह केवल अज्ञानता अथवा धर्मद्व ेष का ही परिणाम है। हम देख आये हैं कि सम्पूर्ण ज्ञान निराकार श्रत है और वह केवल उसके अक्षरों की श्राकृति से ही प्राप्त किया जा सकता है ।
प्रत्येक धर्मानुयायी शास्त्र तथा माला को तो मानते ही हैं । शास्त्र जैसे वचन की स्थापना है वैसे माला भी अपनी अपनी मानी हुई इष्ट वस्तुओं की अथवा उनके गुणों की स्थापना ही है । अन्यथा संख्या विशेष मरणकों की ही माला होनी चाहिए, ऐसा नियम नहीं हो सकता ।
प्रत्येक मत वाले अपने इष्टदेव को पूजने हेतु किसी न किसी प्रकार के आकार को मानते ही हैं, अब इस बात को दूसरे ढंग से स्पष्ट करें ।
ईसाईयों में रोमन केथोलिक ईसा की मूर्ति को मानते हैं । प्रोटेस्टेन्ट ईसा की स्मृति तथा उन पर की श्रद्धा को जीवित रखने के लिए उनको दी हुई सूली के निशान क्रोस ( 1 ) को हमेशा अपने पास रखते हैं । ज्ञान की स्थापना रूप बाइबिल का
आदर करते हैं, अपने पूज्य पादरियों के हैं तथा उनकी प्रतिमानों, पुतलों तथा करते हैं ।
चित्र अपने पास रखते कब्रों का बड़ा प्रादर
मुसलमान नमाज के समय पश्चिम में 'काबा' की तरफ मुँह रखते हैं । क्या ख़ुदा पश्चिम के सिवाय अन्य दिशा में नहीं ? तो फिर पश्चिम में मुँह रखने की क्या जरूरत ? 'काबा' की यात्रा पश्चिम दिशा में होती है इसलिए पश्चिम की ओर नज़र
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