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१४६ करने के तुल्य ही गिना जाता है। इसके विपरीत उन चित्रों को अच्छी फ्रेम में लगाकर मेज या सिंहासन पर ऊँचे स्थान पर रक्खें अथवा दीवार पर स्वच्छता से लगावें तो इससे गुरु अथवा पिता का आदर करना ही माना जायगा तथा उसे देखकर अपने गुरु अथवा पिता को याद आये बिना भी नहीं रहेगी। ... दूसरी बात-शिष्य अथवा पुत्र, गुरु अथवा पिता के नाम का आदर करे, या नहीं ? यदि करता है, तो नाम की अपेक्षा चित्र से तो विशेष याद आती है, ऐसी दशा में उसे उसका विशेष विनय आदि करना चाहिये।
साथ ही यह तर्क भी व्यर्थ है कि पुत्रवधु श्वसुर की तसवीर को देखकर घूघट नहीं निकालती। जैसे तसवीर देखकर शर्म नहीं करती वैसे ही नाम सुनकर भी घूघट नहीं निकालती है तो फिर परमात्मा का नाम भी निरर्थक हो समझना चाहिए। इसके विपरीत श्वसुर को पहले नहीं देखा हो तो उसका चित्र देखकर बहू को. इस बात का ज्ञान होगा कि-'ये मेरे श्वसुर हैं। वैसे ही जिन्होंने भगवान् को नहीं देखा है वे मूर्ति से पहचान जायंगे कि, 'ये मेरे भगवान् हैं।' ... " श्वसुर की पहचान होते ही बहू को घूघट निकालने की हिचक अथवा शंका नहीं रहती, जिससे लाज करने-न-करने का कार्य सुगम हो जाता है । वह श्वसुर को पहचान कर तुरन्त घूघट निकालती है तथा दूसरों को देखकर नहीं निकालती। वैसे ही मति द्वारा प्रभु की पहचान होने पर असेव्य के परित्याग का तथा सेव्य की सेवा भक्ति करने का कार्य सुगम बन जाता है और किसी भी प्रकार के भ्रमजाल में पड़ने का भय नहीं रहता । मूर्ति का यह भी एक महान् उपकार है। .
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