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पूजकव्यक्ति उसमें वीतराग भाव का आरोपण कर पूजा करता है, तब वह मूर्ति वीतराग समान ही बनती है तथा वीतराग की भक्ति जितना ही फल देती है। इस दृष्टि से श्री जिनमूर्ति
श्री जिनवर के समान है। दुष्ट परिणाम वाले व्यक्ति को . मूर्ति के दर्शन से कोई लाभ नहीं होता पर उसके विपरीत
अशुभ परिणाम से कर्म बंधन होता है। इसके बजाय हम यह • कह सकते हैं कि मूर्ति वीतराग के समान नहीं है पर इससे इसकी ..तारक शक्ति चली नहीं जाती । शक्कर मोठी होते हुए भी गधे : को नहीं रुचती है, बल्कि नुकसान करती है, पर इससे शक्कर
का स्वाद नष्ट नहीं होता । वैसे ही मूर्ति भी मिथ्यादृष्टि जीवों को रुचिकर नहीं होती, पर इससे उसकी मोक्षदायकता चली • नहीं जाती।
प्रश्न ३५-मूर्ति यदि जिनराज तुल्य है तो इस पंचम पारे में तीर्थंकर का विरह क्यों कहा गया है ?
उत्तर-भरतक्षेत्र में पंचम पारे में तीर्थंकर का विरह बताया है । यह भाव तीर्थंकर की अपेक्षा से कहा गया है न कि स्थापना अरिहंत की अपेक्षा से किसी गाँव में साधु न हो पर उनकी • तस्वीर हो तो भी ऐसा कहा जाता है कि, 'इस गाँव में प्राज• कल कोई साधु नहीं विचरते' तो वह विरह भाव साधु का ही - समझा जाता है। कोई ऐसा नहीं मानता कि, 'इस गाँव में साधु की तस्वीर का भी अभाव है।'
प्रश्न ३६-एक क्षेत्र में दो तीर्थंकर नहीं होते हैं, पर एक ही भवन में अनेक मूर्तियों को एकत्रित क्यों किया जाता है ?
उत्तर-यह विषय भी स्थापना संबंधी है और जो निषेध है, वह भाव अरिहंत के संबंध में है। जैसे सभी तीर्थंकर सिद्धिगति
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