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________________ चौदह सीढ़ियाँ रूपी चौदह गुणस्थानक वरिणत हैं। उनमें से प्रथम पाँच गुणस्थानक गृहस्थों के लिये हैं और शेष नौ गुणस्थानक साधुओं के लिये हैं। छठे गुरणस्थानक का नाम प्रमत्त तथा सातवें का नाम अप्रमत्त है। संपूर्ण आयुष्य के काल में, सातवें गुरणस्थानक का काल गिना जावे, तो भी अन्तर मुहूर्त मात्र का ही है। सात से ऊपर के गुरणस्थानक इस काल में विद्यमान नहीं है। मुख्यतया प्रथम के छः गुणस्थानक इस काल के जीवों के लिए विद्यमान हैं। साधु के छठे गुणस्थानक में भी पांच प्रकार के प्रमाद संभव होने से निरालंबन ध्यान हो ही नहीं सकता । गृहस्थ तो अधिक से अधिक पांचवें गुरणस्थानक : तक ही पहुंच सकते हैं। वह तो अवश्य प्रमादी है। प्रमादी व्यक्तियों को निरालंबन ध्यान के लिये अयोग्य बताया है। श्री गुणस्थान क्रमारोह में पूज्यपाद श्री रत्नशेखर सूरीश्वर जी महाराजा ने फरमाया है कि "प्रमाद्यावश्यकत्यागात्, निश्चलंध्यानमाश्रयेत् ।" योऽसौ नैवागमं जैनं, वेत्ति मिथ्यात्वमोहितः ॥१॥ अर्थ-स्वयं प्रमादी होने पर भी जो अवश्यकरणीय कात्याग करता है तथा निश्चल जैसे निरालंबन ध्यान का प्राश्रय करता है, वह विपरीत ज्ञान से मूर्ख बना आत्मा, श्री सर्वज्ञ भगवान् के आगमों को नहीं जानता है । इस काल में जीव सातवें गुणस्थानक से ऊँचा नहीं चढ़ : सकते हैं और सातवें गुणस्थानक का समय तो बहुत थोड़ा है: अतः जीव को छट्ठा अथवा इससे उतरता गुरणस्थानक होने से निरालंबन ध्यान सम्भव नहीं हो सकता है। इस काल के बड़े. Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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