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उत्तर - प्रतिमा के दर्शन से जैसी प्रात्मशुद्धि होती है, वैसी नाममात्र से कदापि नहीं हो सकती । नाम की अपेक्षा आकार में अधिक विशेषताएँ हैं । जैसा आकार देखने में आता है वैसे ही आकार संबंधी धर्म का चिन्तन मन में होता है ।
संपूर्ण शुभ अवयवों की पत्थर की प्रतिमा देखकर उसी प्रकार का भाव उत्पन्न होता है । कोकशास्त्रानुसार स्त्री-पुरुषों के विषय सेवन संबंधी आसन आदि को देखकर देखने वाले कामी व्यक्ति को, तत्काल विकार उत्पन्न होता है । योगासनों की प्राकृतियों को देखने से योगी पुरुषों के योगाभ्यास में शीघ्र वृद्धि होती है ।
भूगोल के अभ्यासी को नक्शा आदि देखने से वस्तुओं का ज्ञान आसानी से होता है । मकानों के प्लान देखने से उसके जानकारों को, उन वस्तुओं का तुरंत ध्यान आता है; केवल नाम मात्र से वह सारा ख्याल नहीं आ सकता । इसी प्रकार परमात्मा के नाम की अपेक्षा परमात्मा के आकार वाली मूर्ति से परमात्मा के स्वरूप का अधिक स्पष्ट बोध होता है । तथा परमात्मा का ध्यान करने के लिये आसानी पैदा हो जाती है ।
वंदन - पूजन एवं आदर-सत्कार जिस ढंग से मूर्ति का हो सकता है, उस ढंग से नाम का नहीं हो सकता । मूर्ति की भक्ति में तीनों योग तथा अन्य सभी सामग्रियों की विशेषता ग्रहरण की जा सकती है, जब कि नाम कीर्तनादि में वह सब नहीं हो सकता ।
प्रश्न २८ - निरालंबन ध्यान कब तक नहीं हो सकता ? उत्तर - श्री जैन शास्त्रों में मोक्ष रूपी महल पर चढ़ने के लिये
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