________________
१३५ मुक्ति के लिये वे स्वयं ही प्रयत्न करें, तभी सिद्धि होती है। फिर भी भगवान् की मूर्ति के प्रालंबन से ही जीव को तप नियमादि करने का उल्लास होता है और उसी आधार पर 'भगवान् की मूर्ति तारती है', ऐसा कहने में किसी भी प्रकार की हरकत नहीं है।
इससे आगे बढ़कर सोचने पर-'पत्थर की गाय दूध देती ही नहीं'-ऐसा कहना भी गलत है। गाय के आँचल तथा उसकी दोहन क्रिया से अनभिज्ञ व्यक्ति को इसका ज्ञान देने के लिये भी गाय को आवश्यकता होती है और साक्षात् गाय के अभाव में उसकी मूर्ति द्वारा दोहने की उस क्रिया का ज्ञान दिया जा सकता है । इस ज्ञान के अभाव में यदि प्रत्यक्ष रूप में गाय मिल भी जाय तो भी उससे दूध प्राप्त करने को आशा व्यर्थ है। इस कारण एक अपेक्षा से गाय की मति हो दूध देने वालो सिद्ध हुई, यह भी स्वीकार करना ही पड़ेगा।
इसी तरह भगवान् के अभाव में भगवान् की भक्ति और उनके ध्यान के ज्ञान के लिये भगवान् की मूर्ति अवश्य जरूरी है। मूर्ति के अभाव में भक्ति एवं ध्यान करने का वास्तविक अनुष्ठान तथा विधि जानना संभव नहीं। ध्यान तथा भक्ति बिना मोक्ष प्राप्ति की इच्छा, वंध्या के पुत्र की तरह, वंध्या ही रहती है। इस तरह पत्थर की गाय जैसे दोहने की क्रिया सिखलाती है, वैसे ही पत्थर की मूर्ति भक्ति-ध्यानादि करना सिखाती है और उसके अनुष्ठान को जीवन में क्रियाशील बनाती है। __ प्रश्न २७-परमात्मा के नाम मात्र से ही यदि उनके स्वरूप का बोध हो जाता हो तथा उससे अन्तःकरण को शुद्धि होती हो तो फिर उनकी प्रतिमा को पूजने का आग्रह किस लिये ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org