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________________ १३४ दूसरी बात यह है कि जिस प्रकार पत्थर की गाय दूध नहीं देती वैसी सच्ची गाय भी, 'हे गाय ! तू दूध दे' ऐसा कहने मात्र से दूध नहीं देती है। तो फिर साक्षात् परमात्मा के नाम से या जाप से भी कार्य सिद्धि नहीं होनी चाहिये और परमात्मा का नाम भी नहीं लेना चाहिये । परन्तु जिस शुभ उद्देश्य से ईश्वर का नाम स्मरण किया जाता है, उसी शुभ उद्देश्य से परमात्मा की मूर्ति की उपासना भी कर्तव्य बन जाती है। परमात्मा का नाम लेने से जैसे अन्तःकरण की शुद्धि होती है वैसे ही परमात्म-मूर्ति के दर्शनादि से भो अन्तःकरण की शुद्धि होती ही है। .... इसी तरह कई कहते हैं कि-'जिस प्रकार सिंह की मूर्ति आकर मारती नहीं है, वैसे ही भगवान् की मूर्ति भी आकर 'तारती नहीं, क्योंकि' सिंह ! सिंह !'-ऐसा नाम लेते ही क्या ‘सिंह पाकर मारता है ? नहीं। तो फिर भगवान् का नाम लेना -भी निरर्थक ही ठहरेगा। सिंह की मूर्ति नहीं मारती, इसका कारण यह है कि मारने में सिंह को स्वयं को प्रयत्न करना पड़ता है, मरने वाले को नहीं; जबकि भगवान् की मूर्ति द्वारा तिरने में मूर्ति को कोई प्रयत्न करना नहीं पड़ता है, किन्तु - तरने वाले को करना पड़ता है। मुक्ति की प्राप्ति हेतु व्रत, नियम, तपस्या, संयम आदि की आराधना व्यक्ति को करनी पड़ती है, परमात्मा को नहीं । परमात्मा के प्रयत्न से ही जो तिरने का होता तो परमात्मा तो . अनेक शुभ क्रिया कर गये हैं फिर भी, उससे अन्य क्यों नहीं तिर गये ? परन्तु वैसा होता नहीं है। एक के खाने से जैसे दूसरे की भूख नहीं मिटती, वैसे भगवान् के प्रयत्न मात्र से भक्तजनों की मुक्ति नहीं हो जाती। उनकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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