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प्रश्न २५--मूर्ति के दर्शन से देव का स्मरण होता है, यह बात बराबर है, पर उसकी भक्ति से क्या लाभ ?
उत्तर-शास्त्र के सुनने अथवा पढ़ने से परमेश्वर के वचनों का बोध होता है, तो भी शास्त्र का उपकार मानने वाले भक्त लोग उसे ऊँचे स्थान पर रखते हैं, पैर नहीं लगने देते, मलमूत्रवाली अपवित्र जगह से दूर रखते हैं, अच्छे कपड़े में समेट कर सिंहासन पर रखते हैं तथा उसको वंदन-नमस्कार करते हैं।
इस प्रकार शास्त्र की भक्ति करने से शास्त्र के वचनों पर प्रेम बढ़ता है, श्रद्धा सुदृढ़ होती है तथा सन्मार्ग पर चलने का बल प्राप्त होता है । इसी तरह प्रतिमा की भी वंदन-नमस्कारपूजनादि द्वारा भक्ति करने से भगवान् पर प्रेस बढ़ता है, श्रद्धा सतेज होती है तथा गुण प्राप्ति की तरफ आगे बढ़ने के लिये आत्मा में उत्साह पाता है। गुण प्राप्ति के उत्साह से शुभ ध्यान की वृद्धि होती है, शुभ ध्यान की वृद्धि से कर्म-रज का नाश होता है और ऐसा होने पर मोक्ष मागं अत्यंत सुगम हो जाता है !
प्रश्न २६-पत्थर को गाय को दुहने से जैसे दूध प्राप्त नहीं होता है, वैसे पत्थर की मूर्ति पूजने से भी क्या कार्य सिद्ध हो सकता है ?
उत्तर-पहली बात तो यह है कि यहाँ गाय का दृष्टांत देना, अनुपयुक्त है। गाय के पास से दूध लेने का होता है, पर मूर्ति के पास से कुछ लेने का नहीं होता । गाय जैसे दूध देती है, वैसे मूर्ति कुछ नहीं देती है। पूजक स्वयं अपनी आत्मा में छिपे हुए वीतरागतादि गुणों को मूर्ति के आलंबन से प्रकट करता है।
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