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प्रश्न २१-पाषाण की मूर्ति में प्रभु के गुणों का आरोपण किस प्रकार होता है ?
उत्तर-जिस प्रकार सन आदि हल्की वस्तुओं को स्वच्छ कर उसके सफेद कागज़ बनते हैं और उन काग़ज़ों पर प्रभु की वाणी रूप शास्त्र लिखे जाते हैं, तब तमाम धर्मों के लोग उन शास्त्रों को भगवान् की तरह पूजनीय मानते हैं। उसी तरह खान के पत्थर से मूर्ति बनती है और उस मूर्ति में गुरुजन सूरिमंत्र के जाप द्वारा प्रभु के गुणों का आरोपण करते हैं, तब वह मूर्ति भी प्रभु के समान पूजनीय बन जाती है ।
किसी गृहस्थ को दीक्षा देते समय गुरु उसे दीक्षा का मंत्र ( करेमि भंते सूत्र) सुनाते हैं और शीघ्र ही लोग उसे साधु मानकर वंदना करते हैं । यद्यपि उस समय उस नवदीक्षित साधु में साधु के सत्ताईस गुण प्रकट हो गये हों, ऐसा कोई नियम नहीं है। फिर भी उन गुरणों का उसमें प्रारोपण कर उसकी वंदना होती है। वैसे ही मूर्ति भी गुणारोपण के बाद प्रभु समान वंदनीय बनती है जिससे लोग उसकी वंदना, पूजा करते हैं, तथा उसको नमस्कारादि करते हैं, यह सर्वथा उचित है।
प्रश्न २२-क्या सदाकाल प्रभुमूर्ति को मानते ही रहना चाहिये ?
उत्तर-हाँ ! जहाँ तक प्रात्मा प्रमादी और विस्मरणशील है तब तक उसे प्रभु गुणों के स्मरणादि हेतु प्रभुमूर्ति को मानना ही चाहिये।
ज्ञानाभ्यास में विस्मृति के भय से जिन्हें अचेतन पुस्तकों का सहारा लेना पड़ता है, प्रभु का जाप करते भूल हो जाने के भय से जिन्हें अचेतन जपमाला का प्राश्रय लेना पड़ता है, चारित्र के
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