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श्री जिनवाणी को द्रव्यश्रुत तथा उसके भावार्थ को भावश्रुत कहा है । श्री गणधर भगवंतों ने 'नमो सुदेवयाए' कहकर, श्री जिनवाणी रूप द्रव्यश्रुत को वंदन करने का पाठ श्री भगवतीसूत्र में है तथा उसी सूत्र में " नमो बंभिलिविए" कह कर ब्राह्मी लिपि को भी नमस्कार किया है |
श्री जिनवाणी भाषावर्गरणा के पुद्गल होने से द्रव्य है, -तथा ब्राह्मी लिपि भी अक्षर रूप होने से द्रव्य है । इसलिये शास्त्रों में कहे हुए अक्षर द्रव्यश्रुत हैं और वे भी वंदनीय हैं, तथा मिथ्याशास्त्रों में रहे हुए अक्षर भी द्रव्यश्रुत रूप में -वंदनीय हैं । मिथ्यादृष्टि से ग्रहण किया हुआ उनका भावार्थ मिथ्या होने से वंदनीय नहीं है पर सम्यग्दृष्टि से ग्रहण किया हुआ, उनका भावार्थ सम्यग् होने से वंदनीय है ।
प्रश्न १७ - प्रभु के नाम को स्वीकार करें, परन्तु उनकी आकृति को नहीं मानें तो क्या यह चल सकता है ?
उत्तर - अपने इष्टदेव, गुरु के नाम को मानकर जो उस नाम वाली आकृति को नहीं मानते हैं, वे एक दृष्टि से अपने देव, गुरु का अनादर कर घोर पाप करते हैं । जब दो अक्षर के नाममात्र से देव, गुरु के स्वरूप के बोध होते से कल्याण हो तो उसी के समान आकारवाली प्रतिमा से दुगुना लाभ क्यों नहीं होगा ? समझना तो यह चाहिये कि अकेली आत्मा श्ररुपी, अविनाशी तथा निरंजन होने से उसका नाम निशान देह के आश्रित ही होता है । जिसका नाम है, उसकी प्राकृति भी होनी ही चाहिये | जिसकी प्रकृति नहीं होती, ऐसी निराकार वस्तु का नाम भी नहीं होता है । शास्त्रों में अरूपी आकाश का भी आकार माना गया है ।
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