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यहाँ किसी के मन में प्रश्न उठता है कि, 'जिनमूर्ति की भाँति साधु यदि मिथ्यात्वी के मठ में उतरे तो वह पूजनीय है या नहीं ?' तो उसका उत्तर यह है कि अन्यतीर्थी के मकान में उतरने मात्र से उसका साधुपन चला नहीं जाता। जब तक अपना लिंग और क्रिया छोड़कर अन्य लिंगी अथवा अन्य लिंग की क्रिया करने वाला नहीं हो जाता तब तक वह साधु, साधु की तरह पूजने योग्य है। श्री जिनप्रतिमा के लिये ऐसी बात नहीं है क्योंकि अन्य मत वालों द्वारा ग्रहण की हुई श्री जिन प्रतिमा के पूजन की विधि, वे श्री जिनमत के अनुसार नहीं करते पर अपने शास्त्रानुसार करते हैं, ऐसी विपरीत विधि को मान्यता देने से प्रत्यक्ष रूप से मिथ्यात्व की वृद्धि होती है ।
प्रश्न १६-यदि सम्मग्दृष्टि के हाथ में रहने वाले मिथ्यादृष्टि के शास्त्र सम्यक्त्र त बन जाते हों तो वेद, कुरान, बाइबल आदि सभी धर्मग्रन्थ क्या वंदनीय नहीं बन जायेंगे ?
उत्तर-सम्यग्दृष्टि के हाथ में रहने वाले नहीं, पर हृदय में रहते हुए शास्त्र, सम्यग्दृष्टि प्रात्मा के लिये सम्यक्च त बन जाते हैं। यह प्रभाव उन मिथ्यादृष्टि के शास्त्रों का नहीं, पर सम्यग्दृष्टि के विवेकशील हृदय का है । निरपेक्ष वाणी मिथ्या होते हुए भी उसे सापेक्ष रूप से विचार करने वाला उसमें से सम्यक् विचारों को ही ग्रहण करता है । - श्री नंदीसूत्र में अक्षर को श्रु तज्ञान कहा है जिससे कुरान आदि में अक्षर रूप जो ज्ञान है वह अवश्य वंदनीय है परन्तु उसका भावार्थ वंदनीय नहीं है।
कई जिनवाणी को भावयु त कहते हैं तथा अन्य धर्मों के शास्त्रों को द्रव्यश्रुत कहते हैं, पर यह गलत है । श्री नंदीसूत्र में
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