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भगवान् स्वयं तो वीतराग हैं और उनकी मूर्ति भी सभी जीवों का भला करने वाली है फिर भी कोई दुष्ट आत्मा उनको -आशातना, निंदा अथवा आज्ञा का उल्लंघन करे और परिणामस्वरूप उसका अहित हो तो उसमें भगवान् या मूर्ति का दोष - नहीं ।
शास्त्रकारों के आदेशानुसार सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध, तप, जप, नियम, ध्यान आदि प्रत्येक क्रिया विधिवत् करने से • लाभ करती है तथा प्रतिकूल रूप से व्यवहार करने पर हानि करती है । यही बात मूर्ति की प्रतिष्ठा के विषय में भी समझनी चाहिए।
शास्त्राभ्यास भी असमय और अविधि से करने की मनाई है । उसी भाँति मूर्तिपूजा आदि समस्त लाभकारी क्रियाएँ जिस मात्रा में भावपूर्वक तथा विधि सम्मान पूर्वक करने में प्राती हैं, उतनी ही मात्रा में फलदायी होती हैं । मुनिराज सदा - सबके हितकारी होते हुए भी जिस भाव से उनकी ओर देखा जाता है, उसी प्रकार का फल जीव प्राप्त करते हैं ।
जैसे किसी महासती साध्वी को रूपवान देखकर किसी - विषयी पुरुष को काम विकार उत्पन्न हो जाय अथवा सुन्दर ब्रह्मचारी को देखकर कोई दुष्ट स्त्री उस पर मोहित हो जाय तो क्या इससे वह साधु या साध्वी प्रवंदनीय हो जायेगी ? उन्नीसवें तोर्थंकर भगवान् श्री मल्लीनाथजी की स्त्री-रूप प्रतिमा देखकर छः राजा कामातुर हो गये । तो क्या इससे भगवान् श्री मल्लीनाथजी की महिमा समाप्त हो गई ? कामी- जनों के मोहनीय कर्म के उदय से उनको खराब गति होतो है, उसका कारण उनके स्वयं के क्लिष्ट कर्म हैं, न कि वे महापुरुष । 'अनार्य लोगों को श्री जिनमूर्ति से कहाँ लाभ होता है ?'
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