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________________ १२१ के विश्वासपात्र हैं और मैं अविश्वासपात्र हूँ; प्रभु परमात्मपद को पहुँचे हुए हैं और मैं बहिरात्मभाव में घूम रहा हूँ ! आदि । ____ इस प्रकार प्रभु तो अनेक गुणों से परिपूर्ण हैं और मैं सब प्रकार के दुर्गुणों से परिपूर्ण हूँ। इसी कारण मैं इस संसार रूपी अटवी में अनंतकाल से भटक रहा हूँ। आज मेरे भाग्योदय से मुझे भगवान् की मूर्ति के दर्शन हुए तथा उसके पालंबन से मुझे प्रभु के गुणों का तथा मेरे अवगुणों का स्मरण हुआ; प्रभु के गुण तथा मेरे अवगुण समझ में आये। अब मैं अपने दुर्गुणों को छोड़ने का प्रयत्न करूं तथा जो मार्ग भगवान् ने बतलाया हैं उसका अनुसरण करूँ, सुख एवं कल्याण के लिये जैसा व्यव-. हार करने का उन्होंने फरमाया है वैसा ही व्यवहार मैं करूं । ___ इस प्रकार की शुभ भावना से स्तुति करते हुए जीव अपने अशुभ तथा क्लिष्ट कर्मों का नाश करते हैं; इससे समकित की शुद्धि होती है और परंपरागत मोक्ष के अनंत सुखों की प्राप्ति होती है। श्री जिनप्रतिमा की पूजा तथा स्तुति से इस प्रकार के साक्षात् तथा परम्परागत अनेक लाभ होने से प्रत्येक भव्य आत्मा को जिन-प्रतिमा का प्रयत्न पूर्वक अत्यन्त आदर करना चाहिये । । प्रश्न १४-पूजा और प्रतिष्ठा महा मंगलकारी हैं, तो फिर मूर्ति की प्रतिष्ठा में शुभाशुभ मुहूर्त देखने का क्या प्रयोजन ? उत्तर-किसी योग्य शिष्य को जब दीक्षा देनी होती है तब शुभ मुहूर्त क्यों देखा जाता है ? क्या दीक्षा अमंगलकारी है. कि जिसके लिये शुभ मुहूर्त की आवश्यकता होती है ? शुभ नक्षत्र तथा शुभ ग्रह शुभ सूचक हैं व अशुभ ग्रह तथा अशुभ नक्षत्र अशुभ सूचक हैं; अत: प्रत्येक शुभ कार्य में शुभ मुहूर्त देखने की आवश्यकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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