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११६ किसी भी स्त्रो को ओर मोह दृष्टि से अथवा किसो शत्रु को ओर द्वष हष्टि से देखा नहीं गया; केवल वस्तुस्वभाव तथा कर्म को विचित्रता का विचार कर भगवान् के नेत्र सदा समभाव में रहते हैं । ऐसे भगवान् के नेत्रों को कोटिशः धन्य हैं।' ___'इन दोनों कानों के द्वारा विचित्र प्रकार की राग रागनियों का राग पूर्वक श्रवण नहीं किया गया परन्तु इन्होंने मधुर या कटु, अच्छे या बुरे जैसे भी शब्द कान में पड़े, उनको रागद्वेष रहित होकर सुने हैं।' ___'इस शरीर को किसी जीव की हिंसा अथवा अदत्त-ग्रहण
आदि का दोष नहीं लगा। उसका उपयोग केवल जीवरक्षा निमित्त तथा सभी को सुख मिले, उसो ढंग से हुआ है। इस देह से गाँव गाँव विहार कर अनेक जीवों के सांसारिक बंधनों को तोड़ा है, तथा सभी कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान या केबलदर्शन को प्रकट किया है।' ____ ऐसे प्रभु अनुपम उपकारी तथा सम्पूर्ण जगत् के अकारण बन्धु होने से उनको असंख्य बार धन्यवाद है । इनकी यथाशक्ति भक्ति करना, यह मेरा परम कर्तव्य है।' ।
प्रभु को शांत मुद्रा को देखकर ऐसी शुभ भावना अंतःकरण में उत्पन्न होती है। उत्तम जीव, नि:स्वार्थ प्रेमी ऐसे परमात्मा की जल, चन्दन, केसर, बरास, पुष्प, धूप, दीप, अक्षत, फल, नैवेद्य आदि से पूजा करते हैं, बहुमूल्य आभूषण चढ़ाते हैं, इनकी 'भक्ति में यथाशक्ति धन खर्च करते हैं और सोचते हैं कि 'यदि मैं प्रभु की भक्ति करूंगा तो, मैं स्वयं तिरने के साथ अन्यों को तिराने में भी निमित्त बनूंगा क्योंकि मेरी भक्ति देखकर दूसरे लोग उसका अनुकरण करेंगे तथा अनेक भव्य पुरुष भगवान् की सेवा करने में तत्पर होंगे और मैं उसमें निमित्त बनूंगा।'
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