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११७ से भी प्राप्त हो सकता है। दूसरी ओर असंतोषी एवं अशुभपरिणामी जीवों को तो मिठाई भी अधिक लाभ नहीं पहुँचाती तो रूखी रोटी से तो उनका क्या काम बनने वाला है। दृष्टांत का अभिप्राय यह है कि शुभपरिणामी जीव मूर्ति से भी साक्षात भगवान् के दर्शन जैसा ही लाभ उठा सकते हैं, जबकि दुष्ट परि-। रगामी जीव साक्षात् परमात्मा के दर्शन से भी अशुभ कर्म बाँधते हैं तथा अमृत को भी विष करके अपनाते हैं।
दो घड़ी पूर्व के सामान्य साधु को प्राचार्य पद प्रदान करने के साथ ही अन्य साधु तथा श्रावक छत्तीस गुणों का आरोपरण कर उनकी वंदना करते हैं तथा किसी भी व्यक्ति के पूर्व में गृहस्थ होते हुए भी दीक्षा लेते ही उसमें साधु के सत्ताईस गुणों का प्रारोपण कर उनको वंदन नमस्कार किया जाता है। जिस प्रकार आरोपित अवस्था में कोई प्राचार्य तथा साधु क्रम से प्राचार्य तथा साधु के रूप में पूजनीक बन जाते है उसी प्रकार मूर्ति में भी अंजनशलाका और प्रतिष्ठा हो जाने के बाद उसमें अरिहंत के समान पूजनीयता उत्पन्न हो जाती है। __'मूर्ति स्तुति को सुनती है या नहीं ? यह प्रश्न ही अयोग्य है, क्योंकि पत्थर रूप मूर्ति के गुण गान करने में नहीं पाते हैं, जिसकी वह मूर्ति है, उस देव की स्तुति तथा प्रार्थना की जाती है। वह देव ज्ञानी होने के नाते सेवक की स्तुति आदि को पूरी तरह जान सकते हैं । अतः मूर्ति के सामने स्तुति करना भी उचित है।
प्रश्न १३–श्री जिनप्रतिमा की स्तुति करने की सर्वोत्तम विधि क्या हैं ?
उत्तर-प्रतिमा में भगवान् के नाम तथा गुणों का आरोपण कर उसके समक्ष भगवान् की स्तुति करना, यह सर्वोत्तम विधि
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