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________________ ११६ मूर्ति पूजक लोग यदि पत्थर को ही पूजते होते तो स्तुति भी वे पत्थर को ही करते कि 'हे पत्थर ! हे अमूल्य पत्थर ! तू अनमोल तथा उपयोगी है। तेरो शोभा अपार है। तू स्थान विशेष की खान में से निकला है। तुझे खान में से निकालने वाले कारीगर बहुत कुशल हैं। हम तेरी स्तुति करते हैं, पर इस प्रकार पत्थर के गुणगान कोई नहीं करता पर सभी लोग पत्थर की मूर्ति में आरोपित श्री वीतरागदेव की स्तुति करते ही नज़र आते हैं कि, हे निरंजन ! निराकार ! निर्मोही ! निराकांक्षी ! अजर ! अमर ! अकलंक ! सिद्धस्वरूपी ! सर्वज्ञ ! वीतराग ! आदि गुणों द्वारा गुणवान परमात्मा की ही सभी स्तुति करते हैं । क्या पत्थर में ये गुण हैं कि जो पत्थर की उपासना का झूठा दोष लगाकर लोगों को गलत दिशा में ले जाने का प्रयास किया जा रहा है ? जब पूजक व्यक्ति मूर्ति में पूजा योग्य गुणों को आरोपित करता है, तब उसे मूर्ति साक्षात वीतराग ही प्रतिभासित होती है। वह जिस भाव से मूर्ति को देखता है उसे वह वैसा ही फल देती है । साक्षात् भगवान् तरण-तारण हैं, फिर भी उनकी आशातना करने वालों को बुरा फल मिलता है। उसी भाँति मूर्ति भी तारक होते हुए भी उसकी आशातना करने वाले उसके बुरे फल भोगते हैं। __ शंका-मूर्ति को भगवान कैसे माना जाय ? क्या रूखी सूखी रोटी को मिठाई मान लेने से वह मिठाई बन जाती है ? समाधान-संतोषी तथा शुभ परिणामी जीवों को तो जो संतोष मिठाई से प्राप्त हो सकता है, उतना ही संतोष रूखी रोटी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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