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हैं ? विश्व का बड़ा भाग दुनियादारी की झंझटों में फँसा हुमा है । उनके लिये 'अपने आपको आत्मज्ञानी' सिद्ध करने का ढोंग रचना तथा उचित कार्य का अनादर करना योग्य नहीं है। योग्यता बिना मिथ्याभिमान रखने से किसी भी स्वार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती। इंद्रियों तथा मन पर काबू पाये बिना निरालंबन ध्यान की बातें करने वालों को शास्त्रकार निम्नोक्त उपमा देते हैं :
"जो व्यक्ति इन्द्रियों को जीते बिना ही शुभ ध्यान रखने की इच्छा करता है, वह मूर्ख जलती हुई आग के अभाव में रसोई पकाना चाहता है, जहाज को छोड़कर अगाध समुद्र को दोनों हाथों से तैरकर पार करने की तथा बीज बोये बिना ही खेत में अनाज उत्पन्न करने की इच्छा करता है।"
प्रश्न १५-मूर्ति तो एकेन्द्रिय पाषाण की होने से प्रथम गुणस्थानक पर है । उसको चौथे-पाँचवें गुणस्थानक वाले श्रावक तथा छ?-सातवें गुणस्थानक वाले साधु किस प्रकार: वंदन पूजन कर सकते हैं ? |
उत्तर-प्रथम तो मूर्ति को एकेन्द्रिय कहने वाला व्यक्ति जैन शास्त्रों से अनभिज्ञ ही है। खान में से खोदकर अलग निकाला हुमा पत्थर शस्त्रादि लगने से सचित्त नहीं रहता, ऐसा शास्त्रकार कहते हैं । अचेतन वस्तु में गुणस्थानक नहीं होता है । अब यदि गुरणस्थानक रहित वस्तु को मानने से इन्कार करोगे तो महादोष के भागी बनोगे क्योंकि सिद्ध भगवान् सर्वथा गुरणस्थानक रहित हैं, फिर भी श्री अरिहंतदेव के पश्चात् सबसे प्रथम स्थान पर पूजने योग्य हैं। गुणस्थानक संसारी जीवों के लिये हैं, सिद्ध के जीवों के लिये नहीं।
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