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११३ साधन भी प्राप्त हो जाता है। जब तक पूर्ण विशुद्धि प्राप्त न हो, तब तक जीवन को उच्च मार्ग की ओर ले जाने का केवल यही उत्कृष्ट मार्ग है। जो इस मार्ग में विश्वास नहीं रखते तथा अपने आप को पूर्ण विशुद्ध मानकर समभाव-साधक वाले मानते हैं, उन्हें यह पूछना चाहिये है कि यदि तुम वास्तव में राग द्वष से परे हो तो तुम अपने गुरु एवं अन्य नेताओं का आदर कर उन पर राग क्यों करते हो ? उनके आहार, वस्त्र एवं पात्रादि के प्रति सम्मान भाव क्यों रखते हो? क्या यह राग रहित होने का प्रतीक है ? समभाव में लोन व्यक्ति के लिये सदा सामायिक है, तो गुरु के पास जाकर सामायिक तथा प्रतिक्रमण आदि करने का क्या प्रयोजन है ?
स्त्री पुत्रादि प्रिय वस्तुओं के संयोग से हर्ष तथा उनके वियोग से शोक-धन, माल, हाट आदि के लूटने से संताप तथा उनकी प्राप्ति से हर्ष, वैसे ही किसी दुष्ट व्यक्ति के बुरे वचन कहने पर तथा कष्ट देने पर क्रोध तथा सम्मान देने पर आनंद, ऐसी बातों से राग द्वेष तो प्रत्यक्ष दिखता ही है। उनमें फिर 'कारण' अथवा 'पालंबन' के बिना समता भाव पैदा करने की बात करना क्या ढोंग नहीं है ? 'मेरा घर, मेरी स्त्री, मेरा धन, मेरा पुत्र, मेरा नौकर' आदि मेरा-तेरा करने का जिनका स्वभाव निर्मूल नहीं हुआ, उनको समदृष्टि वाले कैसे कह सकते है ?
जो संपत्ति तथा विपत्ति में, शत्रु एवं मित्र में, स्वर्ण और 'पत्थर में तथा रत्न और तृण समूह में कोई भी भेद-भाव नहीं रखते वे ही वास्तव में समभावशाली, आत्मज्ञानी तथा उच्च कोटि के साधक हैं। आज के युग में ऐसे महान् व्यक्ति कितने
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