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________________ ११२ छ8 गुणस्थानक की सीमा को भी नहीं पहुँच पाये हैं तथा अनेक सांसारिक प्रपंचों में गुथे हुए हैं वे निरालंबन ध्यान की बातों का प्रदर्शन करते हैं, यह केवल आडंबर है। चौथे, “पाँचवें गुरणस्थानक में होने के नाते श्रावक द्रव्य और भाव दोनों प्रकार की पूजा करने के अधिकारी हैं जबकि साधु उनसे ऊँचे स्थान अर्थात् छट्ठ गुणस्थानक में होने से केवल भाव 'पूजा के अधिकारी हैं। जिस प्रकार व्यवहारिक शिक्षा में पहले क, का आदि फिर बाराक्षरी, उसके बाद शास्त्राभ्यास, ऐसा क्रम है, उसी प्रकार गुणस्थानक की ऊँची दशा में चढ़ते समय क्रिया में भी परिवर्तन होता रहता है । सीढ़ियां छोड़कर एकदम छलाँग मारकर भवन के ऊपरी भाग पर चढ़ने का अविवेक पूर्ण प्रयत्न करने से वह स्थान तो बहुत दूर रह जाता है, परन्तु इसके विपरीत नीचे गिरने से हाथ पैर भी टूट जाते हैं। - अब यदि कोई प्रश्न करता है कि 'संसार पर राग कम किया और भगवान् पर राग बढ़ाया तो इसमें भी राग तो कायम ही रहा । जब तक राग-द्वेष रहित नहीं बनेंगे तब तक मुक्ति कैसे मिल सकती है ? यह प्रश्न भी नासमझी का है। "पूर्ण रूप से राग रहित होने की शक्ति नहीं आवे तब तक प्रभु के प्रति राग रखने से संसार के अशुभ राग तथा उनसे बंधाते बुरे कर्मों से बचा जा सकता है। घर बैठे जितनी अनेक प्रकार की वैभाविक चर्चाएँ होती हैं उतनी जिनमंदिर में नहीं हो सकती। प्रभु की शांत मूर्ति के दर्शन से तथा उनके गुणगान में लीन होने से चित्त में दुष्ट भाव तथा बुरे विचार टिक नहीं सकते। इतना ही नहीं परन्तु उन्हें दूर हटाने का एक मुख्य Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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