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नहीं है। अस्थिर मन एवं चंचल इद्रियों पर नियन्त्रण रखना बच्चों का खेल नहीं है। किसी वाद्य यंत्र पर गाया हुया गीत कानों में पड़ते ही चंचल मन उधर चला जाता है। उस समय ध्यान की बातें कहीं उड़ जाती हैं। ऐसी चंचल मनोवृति वाले लोगों के लिये श्री जिन पूजा में लीन हो जाना, यही एक परम ध्यान है।
अनेक चिन्ताओं से युक्त गृहस्थाश्रम में जिनपूजा का अनादर करना केवल हानिकारक ही है। दुनियादारी की विविध भंझटों में फंसे हुए गृहस्थों के लिये मूर्ति के आलंबन बिना मानसिक ध्यान होना सर्वथा असंभव है। श्री जिनपूजा का आदर करके तथा मूर्ति के माध्यम से श्री जिनेश्वरदेव के गुण-. गान आदि करने से चंचल मन स्थिर होता है तथा स्थिर हुए मन को संसार की प्रसारता आदि का बोध सरलता से कराया जा सकता है। सुख-दुख में जहाँ तक सम भाव नहीं आता है, तब तक बड़े बड़े योगीराज की तरह आलंबन-रहित ध्यान की बातें करना व्यर्थ है। जिस समय वह समभाव वाली स्थिति आ जायगी, आलंबन स्वतः ही छूट जायगा। __ श्री जैन धर्म के मर्मज्ञ पूर्वाचार्य महर्षियों ने प्रत्येक जीव को अपने गुणस्थानक अनुसार क्रिया अंगीकार करने का आदेश दिया है। वर्तमान में कोई भी जीव सातवें गुरणस्थानक से आगे नहीं चढ़ सकता है। जीवन के भिन्न २ समय में प्राप्त सातवें गुणस्थानक के कुल समय को जोड़ा जाय तो वह एक अंतर्मुहूर्त से अधिक नहीं बनता। इसलिये वर्तमान के जीवों को ऊंचे से ऊंचा छट्ठा गुणस्थानक तक ही समझना चाहिये। वह गुणस्थानक प्रमादयुक्त होने से उसमें रहने वाले जीव भी निरा-- लंबन ध्यान करने में असमर्थ हैं। ऐसा होने पर भी जो लोग
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