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कर उनका ध्यान करने वाला उस ज्योति को श्वेत, श्याम आदि किसी न किसी रंग वाली मान कर ही उसका ध्यान कर सकता है। सिद्ध भगवंतों में ऐसा कोई भी पौद्गलिक रूप नहीं है, उनका रूप अपौद्गलिक है जिसे सर्वज्ञ केवलज्ञानी महाराज सिवाय अन्य कोई नहीं जान सकते हैं। ___श्री सिद्धचक्र यंत्र में श्री सिद्ध भगवंतों की लाल रंग की कल्पना की गई है, परन्तु वह केवल ध्यान की सुविधा की दृष्टि से है परंतु वास्तविक नहीं । निराकार सिद्ध का ध्यान अतिशयज्ञानी को छोड़कर दूसरा कोई भी करने में समर्थ नहीं है। __कोई कहेगा कि हम मन में मानसिक मूर्ति की कल्पना कर; 'सिद्ध भगवान् का ध्यान करेंगे परन्तु पत्थर जड़ मूर्ति, को नहीं मानेंगे । उनका यह कथन भी विवेक शून्य है क्योंकि यदि उनसे पूछा जाय कि तुम्हारी मानसिक मूर्ति का रंग कैसा है ? लाल या श्वेत ? तो वे क्या उत्तर देंगे? यदि वे कहते हैं कि“उसका रूप नहीं, रंग नहीं या कोई वर्ण नहीं इसलियेकिस प्रकार बताया जावे ? तो उन्हें यह कहना चाहिये कि जिसका रूप, रंग अथवा वर्ण नहीं उसका ध्यान करने की तुम्हारे में शक्ति भी नहीं है'।
इस प्रकार प्रत्यक्ष मूर्ति को मानने की बात से छुटकारा 'पाने के लिये मानसिक मूर्ति मानने से अन्त में ध्यान रहित दशा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । जब मूर्ति के अभाव में ध्यान बनता ही नहीं तो प्रकट रूप से मानने में क्या आपत्ति है ? मानसिक मूर्ति अदृश्य एवं अस्थिर है जबकि प्रकट मूर्ति दृश्य एवं स्थिर है और इसीलिये ध्यान आदि के लिये अनुकूल है।
साथ ही भगवान् श्री तीर्थंकर देवता समवसरण में भी पूर्व की ओर मुख कर बैठते हैं तथा शेष तीनों ओर देवतागरण
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