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________________ १०६ अर्थात् देव संबंधी चैत्य 'अर्थात् श्री जिनप्रतिमा, उनके सामने मैं पर्युपासना करूंगा। ऐसे अनेक स्थलों पर भाव तीर्थंकर तथा स्थापना तीर्थकर की एक समान पर्युपासना करने का पाठ है; जिससे दोनों में कोई अन्तर नहीं है। __भाव या स्थापना दोनों में से किसी की भी भक्ति और "पूजा जिस भाव से की जाती है, तदनुसार फल की प्राप्ति होती है। श्री ज्ञातासूत्र में द्रोपदी के पूजन के अधिकार में श्री 'जिन -मंदिर' को श्री 'जिनगृह' कहा है पर 'मूर्ति-गृह' नहीं कहा । इस पर से भी श्री जिनमूर्ति को ही जिन की उपमा घटती है न कि साधु की। साधु वस्त्र, पात्र, रजोहरण और मुहपत्ति आदि उपकरण सहित है जबकि भगवान् के पास इनमें से कुछ 'भी नहीं होता । भगवान् रत्नजडित सिंहासन पर बैठते हैं, उनके दोनों ओर चँवर ढुलाये जाते हैं, पीछे भामांडल रहता है, आगे देवकुंदुभि बजती है, देवता पुष्पवृष्टि करते हैं इत्यादि अतिशयों से युक्त भगवान होते हैं । साधु के पास इनमें से कुछ भी नहीं होता है । तब फिर साधु ऐसे श्री वीतराग की बराबरी कैसे कर सकते हैं ? पर्यंकासन पर विराजमान सौम्य दृष्टि वाली वीतराग अवस्था की प्रतिमा तो श्री अरिहंत भगवान के तुल्य है । वीतराग की मूर्ति को वीतराग का नमूना कहा जाता है पर साधु का नहीं। साधु के नमूने को ही साधु कहा जाता है। श्री अंतगडदशा सूत्र में कहा है कि 'हरिणगमेषी को प्रतिमा की-आराधना करने से वह देव आराध्य बन गया' इसी प्रकार श्री वीतराग की मूर्ति की आराधना करने से श्री वीतरागदेव आराध्य बन जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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