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१०२ रूप अवग्रह से बाहर निकलना, इस प्रकार कुल पच्चीस बोल हुए, उसमें गुरुमहाराज की हद में दो बार प्रवेश करना और एक बार निकलना यह प्रत्यक्ष गुरु के अभाव में उनकी स्थापना बिना किस प्रकार संभव हो सकता है ?
वंदन के पाठ में गुरुमहाराज की आज्ञा मांगकर भीतर प्रवेश करने का स्पष्ट फरमान है जैसे कि
"इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावरिणज्जाए निसीहिआए अणुजारणह मे मिउग्गहं निसीहि अहो कायं कायसंफासं खमरिणज्जो मे किलामो ।"
अर्थात्- मेरी यह इच्छा है कि हे क्षमाश्रमण ! वंदन हेतु पाप व्यापार से रहित शरीर की शक्ति से मित अवग्रह अर्थात् साढ़े तीन हाथ प्रमाण क्षेत्र में प्रवेश करने की मुझे प्राज्ञा प्रदान करो । उस समय गुरु की आज्ञा लेकर शिष्य 'निसीहि' अर्थात् गुरुवंदन सिवाय अन्य क्रिया का निषेध कर अवग्रह में प्रवेश करे और दोनों हाथ मस्तक पर लगाकर गुरु के चरण स्पर्श करते.
'अहो कायं कायसंफासं । आदि पाठ कहे, जिसका अर्थ ऐसा है कि- 'हे भगवंत ! आपकी अधो काया अर्थात् चरण कमल को मेरी उत्तम काया अर्थात् मस्तक द्वारा स्पर्श करते समय आपको जो कष्ट पहुँचाया हो उसे क्षमा करो।' - इस प्रकार अनेक स्थानों पर गुरु महाराज की आज्ञा मांग कर क्रिया करने की होती है। ऐसी क्रिया गुरु के अभाव में
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