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पूर्वोक्त 'अक्ष' का योग न बने तो ज्ञान दर्शन - चारित्र के उपकरण जैसे कि पुस्तक, नवकारवाली आदि में स्थापना करने का विधान किया हुआ है ।
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श्रावश्यक धर्मक्रियात्रों में स्थान २ पर गुरु महाराज की आज्ञा मांगनी पड़ती है तो वह क्रिया करते समय साक्षात् गुरु न होने की स्थिति में उनकी स्थापना बिना कैसे काम चलसकता है ।
श्री समवायांग सूत्र में बारहवें समवाय में गुरुवंदन के पच्चीस बोल पूरे करने का आदेश है । उसका पाठ नीचे माफिक है - दुवालसावत्ते कित्तिकम्मे पन्नते, तं जहा ।
"दुरणयं जहाजायं कित्तिकम्मं बारसावयं । चउसिरं तिगुत्तं, दुप्पवेसं एगनिक्ख मरणं ॥ | १ ||
अर्थात् वंदन क्रिया में बारह आवर्त फरमाए हैं, वे इस प्रकार है : अवनत अर्थात् दो बार मस्तक झुकाना और एक यथाजात अर्थात् जन्म तथा दीक्षा ग्रहण करते समय की मुद्रा धारण करनी । बारह प्रावर्त्त अर्थात् प्रथम के प्रवेश में छः तथा दूसरे प्रवेश में छः ! ये
'अहो काय काय संफासं ।'
आदि पाठ से करना । चार बार सिर अर्थात् पहले तथा दूसरे प्रवेश में दो दो बार सिर झुकाना, त्रि गुप्त अर्थात् मनवचन काया इन तीनों से वंदना सिवाय दूसरा कार्य न करना, दो प्रवेश अर्थात् गुरुमहाराज की सीमा में प्रवेश करना और एक निष्क्रमरण अर्थात् गुरु महाराज की सीमा में प्रवेश
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