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कहने में आता है । इन पाठों आदि का सच्चा रहस्य समझ कर पूर्वाचार्यों द्वारा अत्यंत आदर सहित प्रमाणित की हुई श्री जिन प्रतिमा का अंतरंग से आदर करना चाहिये ।
प्रश्न ५ - क्या कोई ऐसा शास्त्रीय प्रमाण है कि स्थाप्य की स्थापना किये बिना कोई भी धर्म क्रिया हो ही नहीं सकती ?
उत्तर - श्री जैन धर्म में समस्त धर्म क्रियाएँ स्थापना के सम्मुख ही करनी चाहिये, इसके लिये अनेक सूत्रों के प्रमारण हैं । जैसे देव के प्रभाव में देव की मूर्ति चाहिये वैसे ही गुरु के प्रभाव में गुरु की स्थापना करनी चाहिये । दुषम काल में सूर्य समान पूर्वधर आचार्य भगवान् श्री जिनभद्र गरिण क्षमाश्रमल महाराज स्वरचित श्री विशेषावश्यक महाभाष्य में गुरु अभाव में गुरु की स्थापना करने के विषय में निम्न गाथा द्वारा फरमाते हैं
"गुरुविरहंमि ठवरणा गुरुवएसोवदंसरणत्थं च । जिरणविरहमि जिरगबिबसे वरणा मंतरणं सहलं ॥ १ ॥
श्री ठाणांग सूत्र में भी दश प्रकार की स्थापना बताई है, उसका स्थापन कर 'पंचिदिय' सूत्र से उसमें गुरु महाराज के गुणों का आरोपण कर उसके प्रागे धर्म क्रिया करना उचित है । स्थापना में मुख्य स्थापना 'क्ष' की की जाती है । वह तीन, पाँच, सात या नौ आवर्त वाला हो तो उत्तम गिना जाता है । उसका फल श्री भद्रबाहुस्वामी कृत 'स्थापना कुलक' में विस्तार से बताया गया है । उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज ने भी स्थापना की सज्झाय बतलाई है । उसमें भी इसका फल तथा विधि बताई है ।
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