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दूसरी दृष्टि से देखा जाय तो जिस प्रकार पथ्य आहार लेने से खाने वाले को सुख मिलता है और अपथ्य भोजन करने से भोजन करने वाले को दुःख मिलता है पर आहार में काम में ली हुई वस्तु को कुछ नहीं होता है, ठीक उसी प्रकार परमात्ममूर्ति की स्तुति, भक्ति अथवा निंदा करने से अलिप्त ऐसे परमात्मा पर कुछ भी असर नहीं होती है परन्तु निंदक स्वयं दुर्गति योग्य कर्म उपार्जित करता है व पूजक शुभ कर्म का उपार्जन कर स्वयं सद्गति का पात्र बनता है ।
दूसरी विचारणीय बात यह है कि ब्रह्मचारी महात्माओं को स्त्री की मूर्ति देखने का निषेध किया है परंतु साक्षात् स्त्री के हाथ से आहार पानी लेने का निषेध नहीं किया । स्त्रियाँ दर्शन वंदन करने आवें, घंटों तक व्याख्यान सुनने बैठी रहें, धर्म चर्चा संबंधी शंका समाधान अथवा वार्तालाप करें आदि कार्यों में स्त्री का साक्षात् परिचय होते हुई भी निषेध नहीं किया पर स्त्री के चित्रांकन वाले मकान में रहने का निषेध किया है. इसका क्या कारण ?
चित्र में अंकित स्त्री की आकृति मात्र से कोई आहार पानी मिल नहीं सकता या वार्तालाप हो नहीं सकता है । चित्रांकित स्त्री उठकर स्पर्श भी नहीं कर सकती फिर भी शास्त्रकारों ने उसे निषिद्ध बताया है । इसके पीछे कारण केवल इतना ही हैं कि स्त्री के चित्र अथवा मूर्ति की ओर चित्त की जैसी एकाग्रता होती है, मन में दूषित भाव उठते हैं, धर्मध्यान में बाधा पहुँचती है तथा कर्म बंधन होने के प्रसंग उपस्थित होते हैं वैसे धर्म के निमित्त साक्षात् सम्पर्क में आने वाले स्त्री प्रसंगो में सम्भव नहीं है, इसका कारण यह है कि वहाँ अशुभ मार्ग में चित्त को एकाग्र करने का अवसर साधु को कठिनाई से मिलता है जबकि
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