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परन्तु इससे साधु मुनिराज की पूजनीयता नष्ट नहीं हो जाती। साक्षात् भगवान् श्री महावीर देव को देखकर भी संगमदेव तथा ग्वाले आदि को अशुभ परिणाम हुए, इसमें कारण उनका अशुभ भाव ही है। एक कवि ने कहा है कि
पत्रं नैव यदा करीरविटपे, दोषो वसंतस्य किम् । उल्लूको न विलोकते यदि दिवा, सूर्यस्य किं दूषणम् ।। वर्षा नैव पतन्ति चातकमुखे, मेघस्य किं दूषणम् , यद् भाग्यं विधिना ललाटलिखितं, देवस्य कि दूषणम् ॥१॥
करीर के वृक्ष पर पत्त नहीं पाते उसमें वसंत ऋतु का क्या दोष ? उल्ल को दिन में नहीं दिखाई देता तो इसमें सूर्य का क्या दोष ? वर्षा की बूंदें चातक के मुख में नहीं गिरती तो इसमें मेघ का क्या दोष ? तथा इसी प्रकार ललाट पर लिखे भाग्यानुसार फल भोगना पड़े तो इसमें देव का भी क्या दोष माना जाय?
इसी प्रकार श्री देवाधिदेव की मूर्ति तो शुभ भाव का ही कारण है तथापि उनके द्वषी, दुष्ट परिणामो तथा होनभागी जीवों को भाव उत्पन्न न हो तो वास्तव में उन्हींकी कम नसीबी है । सूर्य के सामने कोई धूल डाले अथवा सुगंधित पुष्प फेंके, दोनों फेंकने वाले की ओर ही लौटते हैं। अथवा कठोर दीवार पर कोई मरिण या पत्थर फेंके तो वे वस्तुएँ फेंकने वाले की ओर ही वापिस आती हैं, अथवा चक्रवर्ती राजा की कोई निन्दा या स्तुति करे तो उससे उसका कुछ बिगड़ता बनता नहीं; पर निंदक स्वयं दुःख का भागी बनता है एवं प्रशंसक स्वयं उत्तम फल प्राप्त करता है।
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