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________________ है परन्तु जो लघु कर्मी जीव हैं उनको तो श्री वीतराग देव को शान्त मुद्रा के दर्शन के साथ ही रोम रोम में प्रेम उमड़े बिना नहीं रहता। मुनि की शान्त मूर्ति को देखकर भी किसी पापी आत्मा के मन में जिस प्रकार भक्ति भाव उत्पन्न नहीं होता है, वैसे ही जिसको मूर्ति के प्रति द्वष या दुर्भाव होता है ऐसी आत्मा को मूर्ति के दर्शन से भी भक्ति भाव उत्पन्न नहीं हो, यह स्वाभाविक है। जगत् का सामान्य नियम तो ऐसा है कि गुणवान की मूर्ति देखकर उनके जैसे गुणों को प्राप्त करने की उत्कंठा हुए बिना नहीं रहती पर उसमें भी अपवाद होते हैं श्री प्राचारांश सूत्र में फरमाया है कि"जे प्रासवा ते परिसवा, जे परिसवा ते पासवा।" अर्थात्-परिणाम की दृष्टि से जो आश्रव के कारण होते हैं; वे संवर के कारण बनते हैं तथा जो संवर के कारण होते हैं; वे पाश्रव के कारण बनते हैं । इलाचिपुत्र पाप के इरादे से घर से निकले थे तथापि परिणाम की विशुद्धता से बाँस की डोरी पर नाच करते समय केवलज्ञान प्राप्त किया था । भरत चक्रवर्ती का आरिसा भुवन में रूप देखने जाना प्राश्रव का कारण था; पर मुद्रिका के गिरने से शुभ भावनाओं में प्रारूढ़ होते ही उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार साधु मुनिराज संवर एवं निर्जरा के कारण हैं फिर भी उनको दुःख देने, उनका बुरा विचारने तथा उनकी निन्दा आदि करने से जीव अशुभ कर्म का आश्रव करता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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