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जैन सिद्धान्त को मानने वालों को द्रव्याथिक चार नयों को मान्य रखकर द्रव्य क्रिया का आदर करना उचित है । द्रव्य निक्षेपा की प्रधानतावाली क्रियाएँ परिणाम की धारा को बढ़ाने वाली हैं, जिससे भाव का परिपूर्ण निश्चय हुए बिना भी व्रत'पच्चक्खारण आदि करवाने की रोति श्री जैन शासन में चल रही है। श्री अनुयोग द्वार, श्री ठाणांग, श्री भगवतीजी तथा श्री सूत्रकृतांग आदि अनेक सूत्रों में द्रव्य निक्षेपा की सिद्धि की हुई है और इस बात को सप्रमाण साबित कर दिया है कि द्रव्य के बिना भाव कदापि संभव नहीं है।
परोपकारी महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज ने स्वोपज्ञवृत्ति सहित रचे हुए श्री 'प्रतिमाशतक' महाग्रन्थ में फरमाया है कि
"नामादित्रयमेव भावभगवत्ताद्र प्यधीकारणम् । शास्त्रात्स्वानुभवाच्च शुद्धहृदयरिष्टं च दृष्ट मुहुः । तेनाहत्प्रतिमामनादृतवतां, भावं पुरस्कुर्वता,मन्धानाभिव दपणे निजमुखालोकाथिनां का मतिः ॥१॥"
भाव भगवंत की तद्र पपने की बुद्धि का कारण-'नाम, स्थापना और द्रव्य-ये तीन ही हैं। शुद्ध हृदयवालों को यह बात शास्त्र प्रमाण से तथा स्वानुभव के निश्चय से बारंबार प्रतीत हो चुकी है। इस कारण श्री अरिहंत परमात्मा की प्रतिमा का आदर किये बिना ही श्री अरिहंत परमात्मा के भाव को आगे बढ़ाने वालों की बुद्धि अंधे व्यक्तियों के दर्पण में देखने की की बुद्धि के समान, हास्यास्पद है।
इससे भी यह सिद्ध होता है कि भगवान् की भावावस्था
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