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एक भाव निक्षेपा को मानकर दूसरे नाम, स्थापना व द्रव्य “निक्षेपा को मानने का निषेध होता तो 'लोगस्स' द्वारा किसको नमस्कार किया जाय ।
- 'लोगस्स में प्रकट रूप से 'अरिहंते कित्तइस्सं' और चउवीसंपि केवली' कहकर चौवीसों तीर्थंकरों को याद किया है। तीर्थकरों का यह स्मरण भाव निक्षेपे से है ही नहीं, परंतु नाम तथा द्रव्य निक्षेपे से ही मानने का है। जो इन दो निक्षेपों को मानने को तैयार नहीं उनके मत से लोगस्स को मानने का रहता ही नहीं तथा लोगस्स नहीं मानने से प्राज्ञाभंग का महादोष लगे बिना भी नहीं रहता।
पुनः साधु-साध्वी के प्रतिक्रमणसूत्र में भी कहा है कि
श्री ऋषभदेवस्वामी से श्री महावीरस्वामी तक चीवीसों तीर्थंकरों को नमस्कार हो।
इसमें भी इन नामों के तीर्थकर भाव निक्षेपे से वर्तमान में कोई नहीं है, पर द्रव्य निक्षेपा से हैं। द्रव्य निक्षेपा नहीं मानने वाले को प्रतिक्रमण भी आवश्यक मानने का नहीं रहता और इससे भी प्राज्ञाभंग का महादोष लगता है। ___ भाव निक्षेपा का विषय अमूर्त होने से अतिशय ज्ञानियों के "सिवाय अन्य कोई भी इसे साक्षात् पहचान या समझ नहीं सकते हैं। इसी कारण श्री जैन सिद्धान्त में संपूर्ण क्रियाओं का'नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र' इन चार द्रव्यप्रधान -नयों की मुख्यता से ही वर्णन किया गया है । द्रव्य निक्षेपा की "प्रधानतावाली क्रियाओं को यदि व्यर्थ माना जाता है तो जैन मत का लोप ही हो जाता है।
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