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नाम के लिए
तथागत बुद्ध ने कहा है
अनरियधम्म कुसला तमाह यो आतुमानं सयमेव पावा।
-सुत्तनिपात ४।४१।३ जो स्वयं अपनी प्रशंसा (आत्म-प्रशंसा) करता है, वह अनार्य धर्म का आचरण करता है।
आत्मप्रशंसा, आत्मख्याति की भावना धर्म के क्षेत्र में सदा-सदा से निषिद्ध है । आचार्य शंकर ने तो यहां तक कहा है-आत्मानं च ते घ्नति ये स्वर्गप्राप्तिहेतूनि कर्माणि कुर्वन्ति—(केनोपनिषद शांकर भाष्य) जो केवल स्वर्ग या परलोक के सुख के लिए कर्म करते हैं, वे सचमुच में अपनी आत्म-हत्या करते हैं।
पर, स्वर्ग की कामना तो दूर, आज तो मनुष्य लौकिक लाभ, यश और कीर्ति की भावना से मरमिट रहा है । अपनी प्रसिद्धि और नाम के लिए धर्म क्षेत्र को
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