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सुख स्वप्न
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कायर कहकर घूरने लगता है, किंतु हमदर्दी की हिलोर हृदय में नहीं उठती ।
उसके
मानव स्वभाव की इस विडम्बना पर व्यंग्य करने वाली प्रसिद्ध विचारक खलील जिब्रान की एक कहानी मुझे याद आगई है
पतझड़ में पेड़ के पत्ते चर चर करते हुए गिरते जा रहे थे । उनके शोर से उद्विग्न होकर घास के तिनके ने कहा - "ए मूर्खो ! गिरना है, तो गिर पड़ो; कहीं अपना सिर छुपाकर बैठ जाओ ! शोर क्यों मचा रहे हो ! तुम्हारे शोर से मेरे सुख- स्वप्न में बाधा पहुंच रही है ।"
एक पत्ता क्रोधित होकर बोला - " नीच कहीं का ! अधोगति को प्राप्त, गान विद्या से विहीन, चिडचिडे तिनके ! तेरी यह हिम्मत ! तू क्या जाने राग की लय में क्या आनन्द है, क्या मस्ती हैं ? हमारे संगीत से तुझे वेदना होती है ? ईर्ष्यालु !”
आंधी और वर्षा ने पत्त े को भूमि की गोद में सुला दिया | फिर बहार का मौसम आया, उसकी आँख खुली, पर अब वह पत्ता घास का तिनका बन चुका था ।
फिर पतझड़ का मौसम आया । पत्ते गिरने लगे । उनके शोर से जाड़े की मीठी नींद में सोये घास के तिनके की निद्रा टूट गई । वह क्रोध में बड़बड़ाया - 'ये पतझड़ के पत्ते कैसे दुष्ट हैं, किसी का सुख सहा नहीं जाता
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